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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
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पहले जब कभी ऐसे मौकेपर मुझे कहीं बाहर जाना पड़ता, तब सावित्री मेरे पुराने छातेको खोलकर देखती कि उसमें कहीं छिद्र तो नहीं है और फिर कोमल कण्ठसे सावधान कर देती कि पिताजी, हवा बहुत तेजीसे चल रही है और पानी भी खूब बरस रहा है, कहीं ऐसा न हो कि सर्दी लग जाय । उस दिन अपने शून्य शब्दहीन घरमें अपना छाता स्वयं खोजते समय मुझे उस स्नेहपूर्ण मुखकी याद आ गई और मैं सावित्रीके बन्द कमरेकी ओर देखकर सोचने लगा कि जो मनुष्य दूसरेके दुःखोंकी परवा नहीं करता है, भगवान् उसे सुखी करनेके लिए उसके घरमें सावित्री जैसी स्नेहकी चीज कैसे रख सकता है ? यह सोचते सोचते मेरी छाती फटने लगी । उसी समय बाहरसे मालगुजार साहबके नौकरों के तकाजेका शब्द सुन पड़ा और मैं किसी तरह शोक संवरण करके बाहर निकल पड़ा।
नावपर चढ़ते समय मैंने देखा कि थानेके घाटपर एक किसान लँगोटी लगाये हुए बैठा है और पानीमें भीग रहा है। पास ही एक छोटी-सी डोंगी बँध रही है । मैंने पूछा-क्यों रे, यहाँ पानीमें क्यों भीग रहा है ? उत्तरसे मालूम हुआ कि कल रातको उसकी कन्याको साँपने काट खाया है, इसलिए पुलिस उसे रिपोर्ट लिखानेके लिए थानेमें घसीट लाई है। देखा कि उसने अपने शरीरके एक मात्र वस्त्रसे कन्याका मृत शरीर ढक रक्खा है। इसी समय मालगुजारीके जल्दबाज़ मल्लाहोंने नाव खोल दी।
कोई एक बजे मैं वापस पा गया। देखा कि तब भी वह किसान हाथ पैरोंको सिकोड़कर छातीसे चिपटाये बैठा है और पानीमें भीग रहा है । दारोगा साहबके दर्शनोंका सौभाग्य उसे तब भी प्राप्त नहीं हुआ था। मैंने घर जाकर रसोई बनाई और उसका कुछ