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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
मृण्मयीने कहा- नहीं।
अपूर्वने पूछा-तुम मुझे प्यार नहीं करती ? पर इस प्रश्नका उन्हें कोई उत्तर न मिला । यों तो इस प्रश्नका उत्तर बहुत ही सहज है; परन्तु कभी कभी इसके अन्दर मनस्तत्व-घटित इतनी अधिक जटिलता भरी रहती है कि एक बालिकाके द्वारा उसके उत्तरकी आशा नहीं की जा सकती।
अपूर्वने पूछा-शायद तुम राखालका साथ नहीं छोड़ सकती ! तुम्हारा जी न जाने कैसा होता है ! क्यों ?
मृण्मयीने अनायास ही उत्तर दे दिया-हाँ ।
इस बी० ए० परीक्षोत्तीर्ण कृतविद्य युवकके हृदय में उस अपढ़ बालक राखालके प्रति सुईके समान अति सूक्ष्म पर साथ ही अति सुदीर्घ, ईर्ष्याका उदय हुआ । उसने कहा-परन्तु मैं बहुत समय तक घर नहीं आ सकूँगा। इस संवादके सम्बन्धमें मृण्मयीको कुछ भी नहीं कहना था । थोड़ी देर बाद अपूर्वने फिर कहा-जान पड़ता है, दो वर्ष तक नहीं श्रा सकूँगा, बल्कि इससे ज्यादा ही समय लग जायगा। इसपर मृण्मयीने श्राज्ञा दी कि जब तुम वापस आना तब राखालके लिए तीन फलवाला एक राजस चाकू लेते श्राना।
अपूर्व लेटे हुए थे ; उन्होंने किञ्चित् उठकर कहा-तो फिर तुम यहीं रहोगी?
मृण्मयीने कहा-हाँ, मैं अपनी माँके पास जाकर रहूँगी।
अपूर्वने साँस लेकर कहा-अच्छा वहीं रहना ! परन्तु जब तक तुम मुझे पाने के लिए चिट्ठी नहीं लिखोगी, तब तक मैं नहीं पाऊँगा । क्यों, इससे तो तुम्हें खूब खुशी हुई होगी?