________________
समाप्ति
कोई आशा न रही, तब अपूर्वं बाबू गृहस्वामीकी फटी-पुरानी और ढीली डाली चटी पहनकर अपनी सजावट निरखते हुए त्यन्त सावधानीके साथ उस कीचड़ भरे रास्ते से अपने घरकी ओर चले ।
४६
वे ज्यों ही तालाब के किनारे के निर्जन मार्गपर पहुँचे, त्यों ही उन्हें फिर वही जोरकी हँसी सुनाई दी । उस समय ऐसा मालूम हुआ कि कौतुकप्रिया वनलक्ष्मी ही तरु-पल्लवोंकी प्रोटमेंसे अपूर्वबाबूकी यह बे-मेल चटी देखकर हँस रही है ।
पूर्वबाबू लज्जित से होकर ठिठक रहे और इधर उधर देखने लगे । इतनेमें ही वह निर्लज्ज अपराधिनी सघन वनमेंसे निकल आई और खोये हुए जूते उनके सामने रखकर भागने लगी। अब अपूर्व से न रहा गया, उन्होंने बड़ी फुर्ती के साथ आगे बढ़कर उसे कैद कर लिया
1
मृण्मयीने टेढ़ी मेढ़ी होकर और भरसक जोर लगाकर हाथ छुड़ाने और भागनेकी चेष्टा की; परन्तु वह सब व्यर्थ हुई । उसके घुँघराले बालोंसे ढँके, भरे और हँसते हुए चेहरेपर डालियों के बीचमेंसे छनकर आती हुई सूर्य किरणें आ पड़ीं। जिस तरह कौतुकी पथिक धूपसे चमकती हुई, निर्मल और चञ्चल नदीकी तलीको उसकी ओर झुककर देखता है, ठीक उसी तरह पूर्वने मृणमयी के ऊपर उठे हुए मुखपर झुककर उसकी बिजली के समान चंचल आँखों के भीतर गहरी नजर गड़ाकर देखा और तब बहुत ही धीरे धीरे मुट्ठी ढीली करके उसे छोड़ दिया । यदि अपूर्व ने पकड़कर मार दिया होता, तो उससे मृण्मयीको कुछ भी आश्चर्य न होता - वह एक मामूली बात होती । परन्तु वह इस गुपचुप दण्डका तो कुछ अर्थ ही न समझ सकी जो उसे उस सुनसान रास्ते पर इतनी खूबसूरती के