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रवीन्द्र-कथाकुञ्ज
चाहती हूँ, पूजा करना चाहती हूँ। तुम अपने आपको अपमानित करके और मुझे दुस्सह दुःख देकर अपने आपसे मुझे बड़ी मत बनायो । सब बातोंमें मुझे अपने पैरोंके नीचे ही रक्खो।
भला क्या मुझे इस समय याद है कि उस समय मैंने उनसे और क्या क्या बातें कही थीं ! क्या क्षुब्ध समुद्र कभी अपना गर्जन आप ही सुन सकता है ! केवल यही याद आता है-मैंने कहा था कि यदि मैं सती हूँ, तो मैं भगवानको साक्षी करके कहती हूँ कि तुम कभी किसी प्रकार अपनी धर्म-शपथ न तोड़ सकोगे। उस महापापसे पहले ही या तो मैं विधवा हो जाऊँगी और या हेमांगिनी ही इस संसार में न रह जायगी । बस इतना कहकर मैं मूछित होकर गिर पड़ी।
जिस समय मेरी मूर्छा भंग हुई, उस समय न तो रात ही समाप्त हुई थी और न प्रभात समयके पक्षी ही बोलने लग गये थे। मेरे स्वामी
चले गये थे। ____ मैं ठाकुरजीवाली कोठरीमें चली गई और अन्दरसे दरवाजा बन्द करके पूजा करने बैठ गई। दिन-भर मैं उस कोठरीके बाहर नहीं निकली। सन्ध्याके समय वैशाखके भीषण अन्धड़से दालान हिलने लगे। मैंने. यह नहीं कहा कि हे ठाकुरजी, मेरे स्वामी अभी तक नदीमें ही नावपर होंगे, उनकी रक्षा करो। मैं एकान्त मनसे केवल यही कहने लगी कि हे ठाकुरजी, मेरे भाग्यमें जो कुछ बदा है, वह हुआ करे । परन्तु मेरे स्वामीको इस महापातकसे बचायो । सारी रात बीत गई । दूसरे दिन भी मैं अपनी जगहसे नहीं उठी । मैं नहीं जानती कि उस अनिद्रा और उस अनाहारमें मुझे कौन आकर बल दे गया था, जो मैं उस पत्थरकी मूर्तिके सामने पत्थरकी मूर्तिकी ही भाँति बैठो रही!
सन्ध्या समय कोई बाहरसे दरवाजेको धक्का देने लगा। जिस