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रवीन्द्र-कथाकुल
उधर बुना उसे आवाजपर आवाज दिया करतीं और बालिका मानो मेरे प्रति करुणाके आवेगसे मुझे जोरसे लिपटा लेती । उस समय मानो उसे कोई आशंका और विषाद घेर लेता । अबसे वह कभी भूलकर भी मेरे सामने मेरे स्वामीका कोई जिक्र नहीं करती।
बीचमें मेरे भाई मुझे देखनेके लिए आये। मैं जानती थी कि भइयाकी दृष्टि बहुत ही तीव्र है। यहाँ इस समय क्या क्या बातें हो रही हैं, उनसे यह छिपाना कदाचित् असम्भव ही होगा। मेरे भइया बहुत कठिन विचारक (न्यायाधीश) थे। वे लेश मात्र अन्यायको भी क्षमा करना नहीं जानते थे। मुझे सबसे अधिक भय केवल इसी बातका था कि भइयाके सामने केवल मेरे स्वामी ही अपराधी ठहरेंगे । मैंने आवश्यकतासे बहुत अधिक प्रसन्न होकर इन सब बातोंको छिपा रक्खा । मैंने खूब बातें करके, खूब इधर दौड़ धूप करके, खूब धूमधाम करके मानो चारों ओर धूल उड़ाए रखनेकी चेष्टा की। पर मेरे लिए ये सब बातें इतनी अधिक अस्वाभाविक थीं कि केवल उन्हींके कारण मैं और भी अधिक पकड़ी गई। पर भइया अधिक दिनों तक नहीं ठहर सके । मेरे स्वामी इतनी अस्थिरता प्रकट करने लगे कि वह प्रकाश्य अप्रियताका रूप धारण करने लगी। भइया चले गये। विदा होनेसे पहले उन्होंने परिपूर्ण स्नेहके साथ बहुत देर तक मेरे माथेपर काँपता हुअा हाथ फेरा । मैं नहीं समझ सकी कि उन्होंने मन ही मन एकाग्र चित्तसे क्या आशीर्वाद दिया। हाँ मेरे, आँसुओंसे भीगे हुए गालोंपर उनके आँसू आ पड़े !
मुझे स्मरण पाता है कि उस दिन चैत्र मासकी सन्ध्याका समय और हाटका दिन था । लोग अपने अपने घर लौट रहे थे। दूरसे वृष्टि