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दृष्टि-दान
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बिलकुल चुपचाप होकर देखने लगी और एक भयंकर आशंकाके अन्धकारमें मेरा समस्त अन्तःकरण आच्छन्न हो गया।
मेरे अनुतप्त स्वामीने मजदूरनीको मना कर दिया और मेरे सब काम वे श्राप ही करने के लिए उद्यत हो गए । पहले तो छोटे छोटे कामोंके लिए भी इस प्रकार निरुपाय होनेके कारण निर्भर रहना बहुत अच्छा जान पड़ता था। इसका कारण यह था कि इस प्रकार वे सदा मेरे पास ही रहते थे। मैं उन्हें आँखों नहीं देख सकती थी, इसलिए उन्हें सदा अपने पास रखनेकी इच्छा बहुत अधिक बढ़ गई। स्वामीके मुखका जो अंश मेरी आँखोंके हिस्से पड़ा था, अब और इन्द्रियाँ उसी अंशको अापसमें बाँटकर अपना अपना अंश बढ़ानेकी चेष्टा करने लगीं। अब जब किसी कामसे स्वामी अधिक समय तक बाहर रहते, तब मुझे ऐसा जान पड़ता कि मानों मैं शून्यमें हूँ । ऐसा जान पड़ता कि मैं कहीं कुछ भी नहीं पाती हूँ। मानो मेरा सब कुछ खो गया है। पहले जब स्वामी कालिज जाया करते थे और उन्हें आनेमें देर होती थी, तब मैं सड़कवाले जंगलेकी बाड़मेंसे उनका रास्ता देखा करती थी। जिस जगतमें वे घूमा करते थे, उस जगतको मैंने अपनी आँखोंके द्वारा अपने पल्लेमें बाँध रक्खा था । पर आज मेरा दृष्टिहीन समस्त शरीर उन्हें ढूँढ़नेकी चेष्टा करने लगा । उनकी पृथ्वीके साथ मेरी पृथ्वीको बाँधनेवाली जो जंजीर थी, वह अाज टूट गई। आज उनके और मेरे मध्यमें एक दुरन्त अन्धता है । अब मुझे केवल निरुपाय होकर व्यग्र भावसे बैठे रहना पड़ता है। मैं यही सोचा करती कि वे कब अपने उस पारसे मेरे पास इस पार श्रावेंगे। इसी लिए अब जब वे क्षण-भरके लिए भी मुझे छोड़कर चले जाते, तब मेग समस्त अन्धा शरीर उद्यत होकर उन्हें पकड़ने दौड़ता और हाहाकार करता हुआ उन्हें पुकारता ।