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आनन्दघन का रहस्यवाद
(२१) नमिजिन स्तवन :-इसमें जैनदर्शन की उदारता का मनोरम परिचय देते हुये यह बताया है कि जैनदर्शन में विविध दर्शनों का समन्वय कैसे होता है ? तथा विभिन्न दर्शनों को वीतराग पुरुष के विभिन्न अंगों के रूप में चित्रित किया है।
(२२) नेमिजिन स्तवन :-उपर्युक्त इक्कीस स्तवनों में दर्शन एवं अध्यात्म का विवेचन हुआ है, किन्तु प्रस्तुत स्तवन में नेमिराजुल के हृदयवेधक विरह का प्रसंग है। राजुल के सांसारिक उपालम्भ का उल्लेख करके अन्त में उसका हृदय परिवर्तन बताकर नेमिजिन के पथ पर चलने वाली राजुल का सुन्दर चित्रण है। वस्तुतः इसमें राजुल की प्रीति के भिन्नभिन्न रूप चित्रित कर अन्त में ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता प्रतिपादित है।
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि आनन्दघन की इस काव्य-कृति में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से शुरू से लेकर अन्त तक क्रमबद्धता है जो कि पदों में नहीं पाई जाती है। जिस रूप में इन्होंने इसमें भक्ति, योग एवं अध्यात्म की त्रिवेणी बहायी है, वह हिन्दी-काव्य-जगत् में अनुपम है।
(२) प्रानन्दघन बहोत्तरी
आनन्दघन की दूसरी महत्त्वपूर्ण रचना 'आनन्दघन बहोत्तरी' है। इसमें इन्होंने कबीर, मीरा, सूर, तुलसी आदि कवियों की भांति मुक्तक पदों की रचना की है। अतः इनकी यह रचना प्रगीति काव्य की श्रेणी में भी आ सकती है, क्योंकि इनके पदों में गेयात्मकता भाव की एकता तथा संक्षिप्तता के साथ आत्म-निवेदन का स्वरूप भी लक्षित होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आनन्दघन एक ओर सिद्धान्त और दर्शन के परगामी विद्वान् थे तो दूसरी ओर सहृदय साधक भी। 'आनन्दघन बहोत्तरी' इनकी सहृदयता की ही प्रतीक कही जा सकती है। इसमें विरह-वेदना की सर्वाधिक मार्मिक अनुभूतियाँ चित्रित हुई हैं। __ आनन्दघन के समूचे पद गेय हैं और विविध रागरागिनी के अन्तर्गत् रचे गये हैं। अतः उनमें सरसता, संगीतात्मकता एवं भावप्रवणता इतनी अधिक है कि कोई भी उन्हें पढ़कर आत्मविभोर हुए बिना नहीं रह सकता।