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आमन्दधन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आनन्दघन के पदों में कृष्णं या ब्रज सम्बन्धी इन दो-तीन पदों के समावेश का कारण यह भी हो सकता है कि उपदेश के माध्यम से भजनों और पदों का जन-जन में प्रचार-प्रसार होता था। संत परिभ्रमण करते हुए जन सामान्य को भजन एवं पद सुनाते थे और सामान्य जनता उन्हें सुनकर कण्ठस्थ कर लेती थी। लेकिन कालानुसार विस्मृति के कारण पदों में प्रयुक्त शब्दों का स्थान-विशेप के अनुसार काया पलट हो जाता था । मात्र इतना ही नहीं, किसी अन्य के पद को भूल से और कभी जान बूझकर किसी दूसरे के नाम चढ़ा दिया जाता था। यथा
भमरा ! कित गुन भयो रे उदासी। तन तेरो कारो मुख तेरो पीरो, सब हैं फूलन को सुवासी ।। ज्यां कलि बैठहि सुवासहि लोनी, सो कलि गई निरासी।
कहत कबीरा सुन भाई साधो ! जइ करवत ल्यो कासी ॥' प्रस्तुत पद की अन्तिम पंक्ति को कबीर के स्थानपर 'आनन्दघन' के नाम पर चढ़ा दिया है : ___ आनन्दघन प्रभु तुमारे मिलन कुं, जाय करवत ल्यूं कासी । उन दिनों यह भी होता था कि 'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा' की भाँति किन्हीं दो रचनाकारों के पदों की कुछ पंक्तियां लेकर कोई पद पूर्ण कर दिया जाता था और किसी एक के नाम पर चढ़ा दिया जाता था। परिणामतः पदावलियों में अनेक पाठ-भेद हो गए और किसी दूसरे के पद किसी अन्य पदकर्ता के नाम से प्रसारित हो गए। यही घटना आनन्दधन की कृतियों के साथ, विशेषतः पदों के साथ हुई है। लगता है, उस समय आनन्दघन इतने लोकप्रिय रहे होंगे कि अन्य कवियों के पद और उनकी भाषा-शैली से पृथक् पद भी उनके नाम से प्रसिद्धि पा गए।
आनन्दघन के पदों में कृष्ण-भक्ति से सम्बन्धित पदों के या अन्य कवियों के कुछ पदों के समावेश का एक कारण यह भी हो सकता है कि उस समय पदों को लिखने वाले लिपिक पैसे के लोभ में आकर अपनी
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० ३६ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ९९ ।