________________
६५
आनन्ददघन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है । घनानन्द के काव्य में विरही हृदय की मार्मिक वेदना अविच्छिन्न गति से बहती है । अपने काव्य में इन्होंने न तो किसी प्रेमाख्यान की रचना की और न रीतिकालीन कवियों की भाँति नायिका के भेद और उपभेदों का अवलंबन लिया । प्रेम की पीड़ा का यह उन्मुक्त गायक अन्य कवियों की अपेक्षा अपनी विशेषता इस प्रकार बताता है :
लोग हैं लागि कत्ति बनावत, मोहि तो मोरे कबित्त बनावत ।
इस तरह घनानन्द का शुद्ध ब्रजभाषा में पद-रचना करने वाले कवियों में महत्वपूर्ण स्थान है । अभिधा की अपेक्षा लक्षणा और व्यंजना का वे अधिक प्रयोग करते हैं। इनके वियोग निरूपण में इनकी अन्तरवृत्तियों IT बोधक प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है । इसीलिए वे कहते हैं कि मेरी कविता समझने के लिए किसी विद्वान् की आवश्यकता नहीं, इसे तो स्नेह की पीड़ा का हर पारखी व्यक्ति समझ सकता है
समझै कविता घन आनन्द की,
for आखिन नेह की पीर तकी ॥
इन्होंने 'घनआनन्द कबित्त', 'कोकसार', 'वियोग बेलि', 'सुजानसागर', 'रसकेलिवल्ली' आदि काव्य-कृतियों की रचना की ।
माना जाता है कि इनका जन्म विक्रम सम्वत् १७४६ में हुआ और मृत्यु अहमदशाह अब्दाली के द्वितीय आक्रमण के समय सं० १८१७ में हुई।
५
यद्यपि घनानन्द और आनन्दघन में नाम - साम्य होने के कारण कतिपय विद्वानों को भ्रान्ति हो गई है कि वृन्दावनवासी घनानन्द और जैनaa आनन्दघन एक ही हैं । क्षितिमोहन सेन ने घनानन्द और आनन्दघन के एक होने की सम्भावना 'मर्मी आनन्दघन' नामक अपने लेख में प्रकट की है। उनका कहना है कि सत्य प्रेमी आनन्दघन का मन योगादि की प्रक्रिया में भी नहीं लगा, इसी कारण उनका ध्यान 'बंसीवाला' और
१. घनआनन्द कबित्त ।
२. वही ।
३.
जैन मर्मी आनन्दघन का काव्य - आचार्य क्षितिमोहन सेन, अंक 'वीणा', पृ० ३- १२ ।