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आनन्दघन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नहीं करते, क्योंकि जहाँ कामना है, वहाँ स्वाधीनता नहीं रह सकती । कामनाओं की पूर्ति के लिए 'पर' की, पदार्थों को, अपेक्षा रहती है । पराधीन साधक आत्मा के आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता। आनन्दन का मत है कि जो पराई आशा पर जीता है, वह सच्चा साधक नहीं । उन्होंने अपने एक पद में कहा है :
आसा औरन की कहा कीजै, ज्ञान-सुधारस पीजै । भटकै द्वारि-द्वारि लोकनकै, कूकर आसाधारी ॥ आतम अनुभव रसके रसिया, उतरइ न कबहु खुमारी । आसा दासी के जे जायै, ते जन जग के दासा । आसा दासी करे जे नायक, लायक अनुभौ प्यासा ॥ ' आशा-तृष्णा के बन्धनों को तोड़कर मुक्त होना ही स्वाधीनता है । निजानन्द में मग्न योगी की श्रानन्दानुभूति
आनन्दघन का अधिकांश समय आत्मलीनता की दशा में व्यतीत होता था । उनका व्यक्तित्व अध्यात्म से परिपूर्ण एवं उच्चकोटि का था । रास्ते में चलते हुए भी वे आध्यात्मिक मस्ती में झूमते गाते रहते । इसकी पुष्टि उपाध्याय यशोविजय की अष्टपदी से होती है । उनकी आध्यात्मिक मस्ती का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं :
मारन चलन चलत गात, आनन्दघन प्यारे ।
रहत आनन्द भरपूर ॥ मारग० ॥ ताको सरूप भूप त्रिलोक, न्यारो बरखत मुख पर नूर ॥ १ ॥ ३ आनन्दघन आत्मानन्द में इतने लीन रहते कि उनके लिए वही सर्वस्व
था । वे स्वयं लिखते हैं :
१.
२.
३.
मेरे प्रान आनन्दघन, तान आनन्दघन मात आनन्दघन, तात आनन्दघन गात आनन्दघन, जात आनन्दघन
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५८ । यशोविजयकृत अष्टपदी, पद १ । उद्धत आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० ११ आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७२ ।
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NACORAT
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