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आनन्दघन का रहस्यवाद
मोक्ष-मार्ग की कारणभूत है। आनन्दघन ने शब्द और अर्थ की दृष्टि से भी अध्यात्म का विश्लेषण किया है।
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शब्द-अध्यातम अर्थ सुणीने, निर्विकल्प आदरजो रे । शब्द-अध्यातम भजना जाणी, हान- ग्रहण -मति धरजो रे ।'
उनके अनुसार निर्विकल्प (संकल्प - विकल्प रहित ) शव्द - अध्यात्म ही उपादेय है । निर्विकल्प भाव अध्यात्म को भी अंध श्रद्धापूर्वक या बिना सोचे-समझे नहीं, अपितु गुरुगम से अर्थ समझकर ग्रहण करने का निर्देश किया है । भाव -अध्यात्म निर्विकल्प - दशा प्राप्त करने के लिए ही है । शब्द अध्यात्म में तो सत्यता हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती । उक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि केवल अध्यात्म शब्द में ही आध्यात्मिकता नहीं है, प्रत्युत वह आध्यात्मिकता भाव में ही निहित है । अध्यात्म का सम्बन्ध भावना से अर्थात् आत्मा से होता है । इससे आनन्दघन के भावनामूलक आध्यात्मिक रहस्यवाद की पुष्टि होती है । आनन्दघन इतने से ही सन्तुष्ट नहीं रह जाते हैं, बल्कि अध्यात्म के निचोड़ के रूप में वे आध्यात्मिक पुरुष के लक्षण का भी संकेत करते हैं । वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं :
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अध्यातमी जे वस्तु विचारी, बीजा जाण लबासी रे । वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, ते आनन्दघन मत संगीरे ॥
आध्यात्मिक पुरुष अथवा अध्यात्मवादी का लक्षण यह है कि 'अध्यात्म सम्बन्धी जो वस्तु तत्त्व है, उसका चिन्तन-मनन करने वाले ही वास्तव में 'अध्यात्मवादी' कहे जाते हैं । अन्य तो सभी केवल कोरी अध्यात्म की, बकवाद करते हैं (भेषधारी हैं) और अध्यात्म का ढोल पीटकर आध्यात्मिक होने का दावा करते हैं । ऐसे लोगों को आनन्दघन ने 'लबासी' की संज्ञा से अभिहित किया है । जो वस्तुतत्त्व को यथातथ्य रूप में प्रकाशित करते हैं, वे आनन्दमय आत्मा के अध्यात्म में स्थायी रूप से स्थिर हो जाते हैं । वस्तुतः अध्यात्म का विषय ऐसा है कि राह चलता हर कोई व्यक्ति आत्मा-परमात्मा की दो-चार रटी - रटाई बातें कह देता है, लेकिन इतने से ही वह आध्यात्मिक या अध्यात्मवादी नहीं हो जाता । आनन्दघन ने इस
१. श्रेयांसजिन स्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली । २. वही ।