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आनन्दघन का रहस्यवाद
अर्थात् जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको
जाता है वह एक को जानता है ।
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जे एगं नामे से बहुं जे बहुं नामे, से एगं
अर्थात् 'जो एक को वशीभूत कर लेता है, वह बहुतों को वश में कर लेता है । जो बहुतों को वश में कर लेता है, वह एक को वश में कर लेता है । विशेषावश्यक भाष्य में भी आचारांग सूत्र की भांति रहस्यात्मकता का निर्देश मिलता है । उसमें कहा गया है :
नामे,
नामे । '
एक्कं जाणं सव्वं जाणति सव्वं च जाणमेगंति । इय सव्व जाणंतो णाऽगारं सव्वधा गुणति ॥ २
इसी भाव की पुनरावृत्ति प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में भी हुई है । उसमें कहा है :
एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ ४
'जिसने एक पदार्थ को सब प्रकार से देख लिया है उसने सब पदार्थों को सब प्रकार से देख लिया है तथा जिसने सब पदार्थों को सब प्रकार से जान लिया है, उसने एक पदार्थ को सब प्रकार से जान लिया है।' इसीसे मिलती-जुलती रहस्यानुभूति आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार में भी प्रतिध्वनित हुई है । उन्होंने भो यही कहा है कि जो सबको नहीं जानता, वह एक को भी नहीं जानता और जो एक को नहीं जानता, वह सबको
१. वही, ११३१४
तुलनीय - 'आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति' । - बृहदारण्यक उपनिषद्, ४।५।६
२. विशेषा० भाष्य गाथा ४८२ ।
३.
जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । णादु तण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा ॥ दव्वं अनंत पज्जयमेगमणताणि दव्वजादीणि ।
ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि ॥ - प्रवचनसार, १ गा० ४८-४९ ।