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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
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साधु संगति और गुरु की कृपा तें मिटि गइ कुल की रेखा । 'आनन्दघन' प्रभु परचो पायो, उतर गयो दिल भेखा ॥'
हे सज्जनों! जब मैंने आत्म-दर्शन किया, आत्म-लाभात्कार किया, तब मैंने यह जाना कि द्रव्य-दृष्टि से आत्मा न तो कर्मों का कर्ता और भोक्ता है और न शुभाशुभ कर्म-फलों का लेखा-जोखा रखनेवाला है। सत्संग और सद्गुरु के अनुग्रह से चिरकालीन हृदय के भीतर जमी हुई अहंकारादि वृत्तियाँ दूर हो गयीं । अभी तक मैं कुल-वंश, गच्छ आदि की मर्यादा से आबद्ध था, किन्तु सज्जनों के समागम में आने एवं सद्गुरु के प्रसाद से आज मैं इन सब से ऊपर उठ कर निज-स्वरूप में स्थित हो गया। स्वस्वरूप में स्थित होने से आनन्दमय परमात्मा से मेरा परिचय हो गया
और इसका परिणाम यह हुआ कि मुझे अपने परमात्म-स्वरूप का बोध हो गया । अब आत्मा और परमात्मा का भेद समाप्त हो गया।
संक्षेप में, आनन्दधन का भावात्मक अनुभूतिमूलक रहस्यवाद एक वृक्ष की भाँति है, जिसका बीज परमात्म-प्रेम है, अंकुर आध्यात्मिक विरह है, आत्म-दर्शन फूल है और परमात्मस्वरूप की उपलब्धि मधुर-फल है।
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७ ।