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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद ३२३ फैली चिहुं दिसि चतुर भाव रुचि, मिट्यो भरम तम जोर । आप की चोरी आप ही जानत, ओरे कहत न चोर ॥२॥ अमल कमल विकच भये भूतल, मंद विष ससि कोर । आनन्दघन इक बल्लभ लागत, और न लाख करोर ॥' चेतन रूप चकवा और चेतना रूपी चकवी का जो अनादिकालीन विछोह था, वियोग था, विरह था, उस विरह के करुण-क्रन्दन का आज अन्त हो गया। विभाव-दशा समाप्त होकर हृदय में स्वभाव-दशारूपी सूर्य उदित हो गया। अरुणोदय होने से जैसे भूतल पर निर्मल कमल खिल जाते हैं, वैसे ही ज्ञान सूर्योदय से हृदय-कमल खिल उठा और वासना रूपी चन्द्रकिरणें मन्द हो गयीं। ऐसी स्थिति में केवल आनन्दमय आत्मा ही साधक को प्रिय लगती है । अन्य लाखों-करोड़ों सांसारिक प्रलोभन उसके समक्ष तुच्छ और निःसार प्रतीत होते हैं। इसका कारण यह है कि शुद्धात्मा के समक्ष सांसारिक वैभव-विलास नगण्य है । यहाँ आनन्दघन की विशिष्टता यह है कि विरह-मिलन के माध्यम से उन्होंने मिथ्यात्व-अंधकार निराकरण और कैवल्य बीज रूप सम्यक् ज्ञान के उदित होने पर बल दिया है। अब तक चेतन चेतना का जो रागात्मक विरह था वह ज्ञानात्मक विरह में परिणत हो जाता है। जब मिथ्यात्व अंधकार हृदय से दूर हो जाता है, तब चेतन निज घर की ओर प्रयाण करता है । चेतन के घर आने से समता के आनन्द का कोई ठिकाना नहीं है । बहुत दिन बाहर भटकने के बाद चेतन आज घर आ रहा है । वर्षों की प्रतीक्षा के बाद पिय के आगमन को सुनकर वह अत्यधिक प्रसन्न हो उठती है। समता आह्लादित होकर अपनी सखी से कहती है-हे सखी, देखो आज चेतन घर आ रहा है। वह अनन्त काल तक ममता-माया आदि पर-परिणतियों के वश में होकर घूमता फिरा, अब उसने हमारी सुध ली है : आज चेतन घर आवै, देखो मेरे सहिओ। काल अनादि कियो परवश ही अब निज चित ही चितावे ।। १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ७३ । २. वही, पद ५, ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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