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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद ३१७ बाधक रूप है । इसको तो मनुष्य मोहनीय कर्म का नाश करके ही जीत पाता है । कबीर ने माया की डायन के रूप में कल्पना की है । वे लिखते हैं— 'माया रूपी डायन मेरे मन में रहती है । वह नित्य विकृत करती है, इस डायन के पाँच लड़के हैं— काम, क्रोध, और लोभ । वे रात दिन मुझे नाच नचाते हैं ।" मेरे मन को मद, मोह ममता आनन्दघन ने मोहिनी माया के साथ-साथ ममता को भी प्रिय - मिलन में बाधक माना है, क्योंकि चेतन समता रूपी स्व- पत्नी को छोड़कर ममता रूपी पर-पत्नी में आसक्त हो जाता है और दिन-रात ममता की सेज पर ही पड़ा रहता है, इससे समता चेतन से नहीं मिल पाती है । वह प्रियतम से निवेदन करती है कि हे प्रिय ! अब तो ममता-गणिका का साथ छोड़िए। आपके और मेरे बीच जो अन्तर पड़ा हुआ है उसे दूर कीजिए । वास्तव में यह बिना पाये की अर्थात् निर्मूल ममता ही आपके और मेरे मिलन में बाधा डाल रही है । किन्तु चेतन देव तो ममतारूपी गणिका में मतवाले होकर उसी के रंग में रंगे हुए हैं। जब तक जड़त्वरूप इस ममता का साथ नहीं छूटता तब तक चेतना से समता का मिलाप नहीं हो सकता। इस प्रकार ममता का उल्लेख आनन्दघन के पदों में बहुलता से हुआ है । एक पद में वे कहते हैं कि 'हे चेतन ! जिसके साथ तुम खेल रहे हो वह तो संसार की दासी है। साथ ही, यह दुर्गंति में ले जाने वाली धूर्त, कपटी, कृपण, अहितैषी आदि है । ३ १. इक डांइन मेरे मन में बसैरे, नित उठि मेरे जीय कौं डसै रे । या डांइन के लरिका पांच रे, निसदिन मोहि नचावैं नाच रे ॥ कहै कबीर हूं ताकौ दास, डांइनि के संगि रहें उदास ॥ — कबीर ग्रन्थावली, पदावली २३६ । २. प्यारे, अव जागो परम गुरु परम देव, मेटहु हम तुम वीच भेद | आली लाज निगारो गमारी जात, मोहि आन मनावत विविध भांति ॥ आली पेर निमूली चूनडी कांनि, मोहि तोहि मिलन बिच देत हानि ॥ आली पति मतवाला और रंग, रमे ममता गणिका के प्रसंग | अब जड़ ते जड़ता घात अंत, चित फूले 'आनन्दघन वसंत ॥ — आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ८३ । ३. वही, पद ४५ एवं ४६ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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