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________________ आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद ३१३ ने काल परिपक्व होने तक परमात्म-दर्शन की प्रतीक्षा में रत रहने की आशा का अवलम्बन लेकर उसी के सहारे जीने का निश्चय किया है। आनन्दघन की विरहजन्य-व्यथा का करुणाजनक दृश्य काव्य का मार्मिक स्थल है। आध्यात्मिक सन्त होने के कारण इनमें हृदय की गहरी अनुभूति है । सम्पूर्ण हिन्दी जैन-काव्य साहित्य में सम्भवतः बनारसीदास के बाद आनन्दघन ने ही विरह-वेदना का इतना व्यापक एवं मार्मिक ढंग से आध्यात्मिक चित्रण किया है। निष्कर्ष यह कि रहस्यवादी काव्य की दृष्टि से आनन्दघन का विरहवर्णन सर्वोत्कृष्ट है। इन्होंने अपने 'आत्म-प्रियतम' के वियोग में अपने हृदय की जिस आकुलता का चित्रण किया है, उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं दिखाई देती। इनका हृदय प्रतिपल प्रभु के विछोह में तड़पता रहता है। इसलिए कतिपय पदों में शुद्धात्मा से मिलनोत्कण्ठा की तीव्र भावुकता परिलक्षित होती है और रहस्यवाद की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। नानान्मनमा आनन्दघन के विरह-मिलन से सम्बन्धित पदों को ऊपरऊपर से पढ़नेवालों को व्यावहारिक या लौकिक विप्रलम्भ शृंगार प्रधान प्रतीत होते हैं, किन्तु गहराई से देखने पर उनका समग्र काव्य आध्यात्मिक तथ्यों से परिपूर्ण प्रतीत होता है । इस प्रकार, आनन्दघन के रहस्यवाद में विरहावस्था की विविध अभिव्यक्तियाँ पाई जाती हैं। उनके विरह-वर्णनों के भावात्मक-चित्रों से रहस्यवाद के सौन्दर्य में द्विगुणित वृद्धि हो गई है। वस्तुतः आनन्दघन की समग्र कृतियों का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि उनमें भावात्मक अनुभूति की प्रमुखता है। भावमूलक अनुभूति ही रहस्यवाद का प्राण है, जो उनके काव्य में कबीर की अपेक्षा भी अधिक भावप्रवणता के साथ प्रस्फुटित हुई है। विघ्न की अवस्था विघ्नावस्था के अन्तर्गत वे सभी विकार, विभाव या परभाव आते हैं जो आत्मानुभूति में बाधक हैं। रहस्यवादी साधक को जब आत्म-अनात्म का विवेक हो जाता है और साधना के द्वारा परमतत्त्व की आंशिक अनुभूति होने लगती है, तब वह शुद्धात्म प्रिय से मिलने के लिए आतुर
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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