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आनन्दघन का रहस्यवाद विरह व्यथा कुछ ऐसी व्यापत, मानु कोई मारत नेजा।
अन्तक अंत कहालु लैगों, चाहें जीव तो लेजा ॥' आनन्दघन रूप समता के ये शब्द आत्म-विरह की महाव्यथा को प्रदर्शित करते हैं। प्रिय का क्षण मात्र का वियोग आनन्दघन रूप - को सहन नहीं होता है, किन्तु वह प्रियतम सदैव आनन्दधन के समक्ष रहता भी कहां है ? ऐसा सौभाग्य तो किसो का ही होता है । अतएव कभी-कभी आनन्दघन की समया-प्रिया अपने प्रियतम' को उपालम्भ भी दे बैठती है
पिया तुम निठुर भए क्युं ऐसे। हे प्रिय ! तुम इतने निष्ठुर हृदय के कैसे हो गए ? मैं मन, वाणी और कर्म से आपकी हो चुकी और आपका यह उपेक्षा भाव । इसी तरह
प्यारे लालन बिन मेरों कोण हाल,
समझे न घट की निठुर लाल ॥३ पद में भी समता-प्रिया प्रिय की निष्ठुरता पर उपालम्भ देती है कि हे प्रिय ! तेरे बिना मेरी क्या दशा हो रही है ? किन्तु मेरी हृदय की व्यथा को निष्ठुर पति समझ नहीं रहा है। कबीर, मीरा, सन्त सुन्दरदास आदि ने भी प्रिय के वियोग में अपनी 'व्याकुलता' कुछ इन्हीं शब्दों में व्यक्त की है। सन्त सुन्दरदास कहते हैं कि वियोग में भूख-प्यास और नींद भी दूर हो गई है :
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २५ । २. वही, पद ४४। ३. वही, पद ६८। ४. तलफै बिन बालम मोर जिया,
दिन नहिं चैन रात नहीं निंदिया, तलफ तलफ के भोर किया । तन-मन मोर रहट अस डोले सून सेज पर जनम लिया। नैन थकित भए पंथ न सूझै, सांई बेदरदी सुध न लिया। कहत कबीर सुनो भाई साधो, हरी पीर दुःख जोर किया ।
-कबीर ग्रन्थावली ५. रात दिवस मोहि नींद न आवत, भावत अन्न न पानी । ऐसी पीर बिरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी ॥
-मीरा