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रहस्यवाद : एक परिचय
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सिद्धों की वाणी में यद्यपि रहस्यात्मक प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं, तथापि उनकी यह रहस्य - भावना अधिकांशतः साधनात्मक है । सिद्ध-वाणी में सरहपा की कृतियों में कहीं-कहीं प्रकृत रहस्यवाद की झलक अवश्य मिलती है । '
इस प्रकार, सिद्धों में साधनात्मक रहस्यवाद का पर्याप्त विकास हुआ है । सिद्ध निर्गुण और निराकार तत्त्व की साधना करते थे । आगे चलकर हिन्दी साहित्य में, मध्ययुगीन कबीर आदि सन्त कवियों के रहस्यवाद पर इन सिद्धों की रहस्यात्मक साधना का प्रभाव स्पष्टतः लक्षित होता है । (ब) नाथ सम्प्रदाय में रहस्यवाद
बौद्ध सिद्धों की यह रहस्यात्मक साधना सम्भवतः ७वीं से १२वीं शताब्दी तक अनवरत प्रवहमान रही, किन्तु बाद में उत्कट वामाचार के कारण अश्लीलता और वीभत्सता आ गई । परिणामतः इनका प्रभाव चरम सीमा पर पहुंचकर हासोन्मुख हो गया । ऐसी स्थिति में, बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में से ही नाथ सम्प्रदाय का उद्भव हुआ १२ गुरू गोरखनाथ इसके आदि प्रवर्तक माने जाते हैं । महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री भी गोरखनाथ को वज्रयानी बौद्ध मानते हैं ।
नाथ सम्प्रदाय की साधना अन्तर्मुखी है । इसमें हठयोग पर अत्यधिक बल दिया गया है । इसीलिए इस पंथ की साधना को हठयोग के नाम से
१. ऊंचा ऊंचा परवत तह बसइ सबरी बाली । मोरंगी पिच्छ पहिरि सबरी गीवत गूजरी माला ॥ उमत सबरी पागल सबरी मा कर गुली - गुहाड़ा । हारिणि धरणी सहअ सुन्दरी ।
णाणा तरुवर मौलिल रे गअणत लागेल डाली ।
२.
३.
एकल सबरी एषन हिण्डई, कर्ण कुण्डल वज्रधारी । ति धाउ पड़िला, सबरो महासुइ सेजइ छाइली ।
सबरो भुजङ्ग गइ रामणि दारी, पेक्ख राति पोहाइली । हिए तांबोला महा हे कापुर खाई ।
सुन निरामणि कण्ठे इजा महासुहे राति पोहाई ॥ गोरखनाथ ऐंड कनफटा योगीज, ब्रिग्स
भारतीय संस्कृति और सावना, २, पृ० २५४ ।