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________________ २८० आनन्दघन का रहस्यवाद इतना ही नहीं, आत्म-प्रम के सम्बन्ध में उनका कथन है कि साधक रूप सुहागिन के हृदय में निर्गुण-ब्रह्म-शुद्ध आत्मा की अनुभूति से ऐसा प्रेम जगा है कि अनादिकाल से चली आनेवाली अज्ञान की नींद समाप्त हो गयी। हृदय के भीतर भक्ति के दीपक ने एक ऐसी सहज ज्योति को आलोकित किया है जिससे अहंकार स्वयं दूर हो गया है और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गयी । प्रेम एक ऐसा अचूक तीर है कि जिसे लगता है वह स्व-स्वरूप में स्थिर हो जाता है। वह एक ऐसी वीणा का नाद है, जिसे सुनकर आत्मारूपी मृग चरना भूल जाता है। प्रभु तो प्रेम से मिलता है. उसकी कहानी कही नहीं जा सकती : सुहागनि जागी अनुभौ प्रीति।। नींद अनादि अज्ञान की मेटि गही निज रीति ।। दीपक घट मंदिर कियो, सहज सुजोति सरूप । आप पराई आपुही, ठानत वस्तु अनूप ।। कहा दिखावू और कुं, कहा समझाईं भोर । तीरन चूकै प्रेम का, लागे सो रहै ठोर ।। नाद विलूधों प्रान कुं, गिनै न त्रिण मृग लोइ । आनन्दघन प्रभु-प्रेम की, अवथ मल्हानी कोइ ।' आनन्दधन के समक्ष समस्या यह है कि जिन्होंने आत्मानुभव रूपी प्रेम का रसास्वादन ही नहीं किया है ऐसे भोले प्राणियों को उसके सम्बन्ध में कैसे समझाया जाय और इस अनुभव-प्रीति को उन्हें कैसे दिखाया जाय, क्योंकि यह आध्यात्मिक-प्रेम अतीन्द्रिय होने से आँखों से दिखाई नहीं देता और वाणी द्वारा इसका कथन नहीं किया जा सकता। फिर भी, इस सम्बन्ध में लौकिक उदाहरण द्वारा इतना इंगित किया जा सकता है कि यह अनुभव रूपी प्रेम का तीर तो इतना पैना है कि जिसे लग जाता है, वह वहीं स्थिर हो जाता है अर्थात् अनुभव-प्रेम का तीर लगने के पश्चात् परिणामों की चंचलता मिट जाती है और साधक स्व-स्वभाव में स्थित हो जाता है फिर उसे अन्य किसी बाह्य-भावों में रुचि नहीं रहती। जिस प्रकार गायन (नाद) में आसक्त हुआ हरिण अपने प्राणों की तनिक भी परवाह नहीं करता, उसी तरह आनन्द ,रूप प्रभु-प्रेम में तल्लीन साधक अपने प्राणों की किंचित् भी चिन्ता नहीं करता। प्रभु-प्रेम की कथा तो अनि १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५४ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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