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________________ २७२ आनन्दघन का रहस्यवाद अनुभवः।' अनुभव दो प्रकार का होता है-लौकिक और आध्यात्मिक । इन दोनों में आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव ही शुद्धात्मा का अनुभव है। सन्त आनन्दघन ने भी शुद्धात्मा के अनुभव को स्व-समय यानी स्व-स्वरूपरमणता कहा है।' साधना की प्रारम्भिक स्थिति से लेकर उसकी सर्वोच्च स्थिति पर्यन्त यह अनुभव क्रमशः बढ़ता जाता है और एक दिन साधक को कृतकृत्य कर देता है। जैनेन्द्र सिद्धन्त कोश में 'अनुभव' का अर्थ 'प्रत्यक्ष वेदन' दिया है ।२ द्रव्य-संग्रह की टीका के अनुसार स्व-संवेदनगम्य आत्म सुख का वेदन ही स्वानुभव है। वास्तव में, आत्मा का अनुभव स्व-संवेदन द्वारा ही सम्भव है। आत्मा को जानने में अनुभव ही प्रधान है। कवि बनारसीदास के अनुसार 'अनुभव' का लक्षण है : वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावै विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभौ याको नाम ॥४ आत्मिक रस का आस्वादन करने से जो आनन्द मिलता है उसे ही अनुभव कहते हैं । "इसी अनुभव को जगत् के ज्ञानीजन रसायन कहते हैं। इसका आनन्द कामधेनु और चित्रावेलि के समान है, इसका स्वाद पंचामृत भोजन जैसा है। अनुभव मोक्ष का साक्षात् मार्ग है"।" अनुभव-रस की चर्चा आनन्दघन ने भी अधिकांश पदों में की है जिनका उल्लेख पिछले अध्यायों में प्रसंगानुसार किया जा चुका है। अतः यहां विस्तार में जाना उचित नहीं। 'अनुभव-रस' की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए वे कहते १. आनन्दघन ग्रन्थावली, अरजिन स्तवन, २ । २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ८२ । ३. द्रव्य संग्रह, टीका, ४२११८४ । ४. बनारसीदास, समयसार नाटक, १७ वां पद्य, पृ० ६ । ५. अनुभौ के रस कौं रसायन कहत जग, अनुभौ अभ्यास यह तीरथ की ठौर है। अनुभौ की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि, अनुभौ को स्वाद पंच अमृत को कौर है ॥ —समयसार-नाटक-, बनारसीदास, १९ वां पद्य, पृ० ६ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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