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आनन्दघन का सावनात्मक रहस्यवाद
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परमात्मतत्त्व की उपासना में प्रवाहित करना ही भक्ति-योग है। दूसरे शब्दों में, 'प्रेम' जिसे योग की भाषा में 'भक्ति' कहते हैं। यहां भक्ति से अभिप्राय है-भाव की विशुद्धि से युक्त अनुराग । जिस अनुराग में भाव की निर्मलता नहीं होती, वह अनुराग (प्रेम) भक्ति नहीं कहलाता। ___ भक्ति की साधना आस्था को सुदृढ़ बनाने की साधना है। परमात्मा बनने के लिए यह एक सरल एवं सुगम मार्ग है। जैन-परम्परा में जिनेन्द्र के स्तवन, पूजनादि को भक्ति कहा गया है। किन्तु जैन-भक्ति का लक्ष्य ऐहिक स्वार्थ न होकर आत्म-शुद्धि है। ___भक्ति, साधना की प्राथमिक स्थिति है । आत्मा जव परमात्मा बनना चाहती है तब उसका प्रारम्भिक प्रयत्न भक्ति के रूप में ही होता है। भक्ति में समर्पण का भाव प्रधान होता है। भक्त अपने जीवन को तभी सार्थक मानता है, जब वह भगवान् के चरणों पर समूचा चढ़ जाए । सन्त आनन्दघन के स्तवनों एवं पदों में भक्ति योग की पराकाष्ठा के दर्शन होते हैं।
भक्तियोग की पराकाष्ठा का सर्वोत्तम उदाहरण आनन्दघन की निम्नांकित पंक्तियों में द्रष्टव्य है :
जिन चरणे चित ल्याउं रे मना । अरिहंत के गुण गाऊं रे मना ।। जिन० ॥ उदर भरण के कारण रे गौवां वन में जाय ।
चार चरै चिहुं दिस फिरे, वाकी सुरति वछरुआ मांहि रे ।' जिस प्रकार उदर भरण के लिए गौएं वन में जाती हैं, घास चरती हैं, चारों ओर फिरती हैं, किन्तु उनका मन अपने बछड़ों में लगा रहता है, वैसे ही संसार के कामों को करते हुए भी भक्त का मन भगवान् के चरणों में लगा रहता है। पुनश्च उनका कथन है कि जिस प्रकार कामी का मन, अन्य सब सुध-बुध खोकर काम-बानना में ही तृप्त होता है, अन्य बातों में उसे रस नहीं आता, वैसे ही प्रभु-नाम और स्मरणादि रूप भक्ति में, भक्त की अविचल अनन्य निष्ठा होती है । उसका मन भगवान् के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं जाता। इस पद से यह फलित होता है कि साधक को अर्हन्त-सिद्ध परमात्मा की भक्ति अवश्य करने योग्य है, क्योंकि भक्ति
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ८१ ।