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आनन्दघन का साधनात्मक रहस्यवाद
२५३ (स) श्रद्धापरक अर्थ में
'सम्यग्दर्शन' शब्द देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। जैन-परम्परा में श्रद्धा, सम्यक्त्व, श्रद्धान, समत्व, समकित, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्दर्शन, शुद्ध श्रद्धा आदि एकार्थक हैं । सम्यग्दर्शन का लक्षण एवं स्वरूप
आचार्य उमास्वाति के शब्दों में, 'तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्'तत्त्वरूप पदार्थों को श्रद्धा अर्थात् दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन है। आचार्य समन्तभद्र आप्तादि के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । और आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में श्रद्धा रखना सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्दर्शन है।
सन्त आनन्दधन ने भी उक्त जैनाचार्यों का अनुसरण करते हुए सम्यग्दर्शन का महत्त्व एवं लक्षण निम्नांकित पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है :
__ भाव अविशुद्ध जु, कह्या जिनवर देव रे।
ते तिम अवितत्थ मुद्दहे, प्रथम ए शांति पद सेव रे ।। आगमों में जिनेश्वर परमात्मा ने जिन-जिन भावों अर्थात् तत्त्वों या पदार्थों को स्वभाव-दशा की दृष्टि से विशुद्ध और द्विभाव दशा की अशुद्ध निरूपित किए हैं, उन्हें यथातथ्य रूप में ही यथार्थ जानकर और उन
१. तत्त्वार्थ सूत्र १२ एवं
तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्त तं वियाहिय ॥
-उत्तराध्ययन, २०११५ । २. श्रद्धानं परमार्थानामाप्ताऽगम तपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
-समीचीन धर्मशास्त्र, पृ० ३२ । ३. या देवे देवता बुद्धि, गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥
-योगशास्त्र, प्रकाश, ३, श्लो० २ । ४. आनन्दधन ग्रन्थावली, शान्ति जिन स्तवन ।