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________________ पंचम अध्याय आनन्दघन का साधनात्मक रहस्यवाद साधना मानव जोवन का महत्त्वपूर्ण अंग है । भारतीय-परम्परा में प्रायः सभी ऋषि-मनीषियों ने साधना को अपनाया है। रहस्यवादी-दर्शन में भी साध्य की प्राप्ति के लिए साधना अपेक्षित है। जैनदर्शन की साधनापद्धति का परम और चरम लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति रहा है। मोक्ष का अर्थ है-आत्मगुणों का पूर्ण विकास, कर्म की परतन्त्रता से पूर्णरूप से मुक्त होना । सन्त आनन्दघन के साधनात्मक रहस्यवाद का अविकल रूप हमें उनकी कृतियों में मिलता है। सन्त आनन्दघन में रहस्यवाद के मूलतः दो रूप दृष्टिगत होते हैं-एक साधनामूलक और दूसरा भावनामूलक । साधनामूलक रहस्यवाद में हमें रत्नत्रय की साधना के साथ मुख्यतः भक्ति एवं योग-साधना के स्पष्टतः दर्शन होते हैं। वस्तुतः उनके साधनामूलक रहस्यवाद का प्रमुख लक्ष्य है-निराकुलता और आत्मोपलब्धि । रत्नत्रय की साधना रत्नत्रय की साधना जैनधर्म में बहुचर्चित है। जिस प्रकार अष्टांग-योग, योग-दर्शन की साधना-पद्धति के रूप में सुविख्यात है, उसी प्रकार रत्नत्रय जैनधर्म की साधना-पद्धति के रूप में सुविख्यात है। उसके तीन अंग है : (१) सम्यग्दर्शन (२) सम्यग्ज्ञान (३) सम्यक् चारित्र जैन-परम्परा में व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विधान किया गया है। महानिशीथ सूत्र में बताया गया है कि साधना की दृष्टि से सम्यग्दर्शन का प्रथम स्थान
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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