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आनन्दघन का रहस्यवाद
इसी तरह उपनिषदों में योग सम्वन्धी विधान, नेति नेति के द्वारा सत्य के स्वरूप का वर्णन, ज्योतिर्मय पात्र से विहित सत्य - ब्रह्म का चित्रण, प्रिया - आलिङ्गनवत् अन्तः बाह्य अभेद एवं साक्षात्कार की स्थितियों के क्रमिक विकास आदि रहस्यात्मक भावना के संकेत सूत्र उपलब्ध होते हैं । बृहदारण्यकोपनिषद् विश्वात्मक सत्ता की एकता एवं उसके स्वरूप निर्धारण में रहस्यवाद की झलक निम्नांकित रूप में अभिव्यंजित हुई हैपूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ '
वह परमात्मा पूर्ण है, यह जगत् भी पूर्ण है, पूर्ण में से पूर्ण निकला है । पूर्ण में से पूर्ण निकलने के बाद जो बचता है वह भी पूर्ण है । दूसरे शब्दों में, वह सत्ता पूर्ण है तथा जो कुछ उसका कार्य रूप समझा जा सकता है वह भी पूर्ण है और इस दूसरे पूर्ण के उसमें लीन हो जाने पर फिर वही पूर्ण रह जाता है । उक्त विधान का अभिप्राय यह है कि वह नित्य एवं अद्वैत है। केनोपनिषद् में ब्रह्म स्वयं ही रहस्यमय बना हुआ है । उसमें कहा गया है कि 'जो यह समझता है कि मैंने ब्रह्म को समझ लिया है, वह उसको स्वल्प ही जानता है । ब्रह्म वास्तव में अनिर्वचनीय है । अतः यही कहा जा सकता है कि 'जो ऐसा समझता है कि ब्रह्म को मैंने पूर्णतया नहीं समझा है, वही उसको समझता है । जिसको यह अभिमान है कि मैं ब्रह्म को समझता हूँ, वह उसको नहीं समझता । जो यह कहते हैं कि हमने उसको जान लिया है वे उसको नहीं जानते । . . . ज्ञानी होते हुए भी कहते हैं कि हम उसको नहीं जानते वास्तव में उन्हीं को ब्रह्म विज्ञात है ।' ३ ज्योतिर्मय पात्र से पिहित सत्य - ब्रह्म को रहस्य का
१. बृहदारण्यकोपनिषद् ५।१।१
२. यदि मन्यसे सुवेदेति दभ्रमेवापि नूनम् त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपं यदस्य त्वं यदस्य च देवेष्वथ तु मीमांस्य ते मन्ये विदितम् ।
— केनोपनिषद् २।१
३.
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च । यो नस्तद्वेद तद्वेद, जो न वेदेति वेद च ॥ —वही, २२
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः । अविज्ञातं विजानतां, विज्ञातमविजानताम् ॥ — वही, २१३