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आनन्दघन का रहस्यवाद
परमात्मा का सम्यक् विवेचन किया है, वहीं कर्म-सिद्धान्त का रहस्य भी खोल दिया है। यदि आत्मवाद को उनके रहस्यवादी दर्शन की नींव कहें तो कर्मवाद को उनके दर्शन की भित्ति कहना अनुचित नहीं होगा जिस पर उन्होंने मुक्ति महल खड़ा किया है।
सामान्यतः प्रत्येक आत्मा कर्म के संयोग से आबद्ध है। उसका कर्मों से आबद्ध होने का मूल कारण शारीरादि पौद्गलिक पदार्थों के प्रति आसक्ति-तृष्णा है । कर्मवाद को जानने का अर्थ है-बन्धन की प्रक्रिया को समझना। आनन्दघन के समक्ष मूल प्रश्न यह है कि यदि ‘आत्मा ही परमात्मा है' तो फिर आत्मा और परमात्मा के बीच पार्थक्य क्यों है ? किस कारण से आत्मा अपने परमात्म-स्वरूप से वंचित है ? परमात्म-स्वरूप को प्रकट होने से रोकनेवाले कौन-से ऐसे बाधक विजातीय तत्त्व (कारक) हैं जो आत्मा की स्वाभाविक शक्ति पर आवरण डाले हुए हैं। उक्त प्रश्नों के समाधान हेतु वे स्वयं जिज्ञासा वृत्ति से पद्मप्रभ परमात्मा से पूछते हैं :
पद्मप्रभ जिन तुझ मुज आंतरूं रे, किम भांजे भगवंत ।
कर्म विपाक कारण जोइनेरे, कोई कहे मतिमंत ॥' आत्मा और परमात्मा के बीच दूरी का कारण क्या है और उस दूरी को कैसे मिटाया जा सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर बुद्धिमान् पुरुषों ने इस प्रकार दिया कि आत्मा और परमात्मा के बीच दूरी का कारण केवल कर्म है। कर्म आत्मा और परमात्मा के बीच अलगाव पैदा करते हैं। कर्म ही आत्मा का बन्धन है। आचारांग नियुक्ति में भी कहा है : “संसारस्स उ मूलं कम्म, तस्स वि हुंति य कसाया"२-अर्थात् संसार का मूल कर्म है
और कर्म का मूल कषाय है। यह कर्म-विपाक दो प्रकार का है-सुख रूप कर्मविपाक और दुःखरूप कर्मविपाक । आचारांग में कहा गया है कि 'कम्मुणा ज्याही जायइ'३-कर्म से ही समस्त उपाधियाँ (दुःख) पैदा होते • हैं। अतः कर्म-मल का अभाव होने पर ही आत्मा और परमात्मा के बीच का अन्तर समाप्त हो सकता है । कर्ममल के अभाव से आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद्मप्रभ जिन स्तवन । २. आचारांग नियुक्ति, १८९ । ३. आचारांग, १२३३१