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________________ २२० आनन्दघन का रहस्यवाद गया है) व्यक्ति गाढ़ निद्रा का अनुभव करता है, इसमें देखी सुनी हुई किसी भी वस्तु को वह नहीं देख पाता है । स्वप्न-दशा में व्यक्ति जाग्रत्. अवस्था में देखे हुए पदार्थों का अवलोकन करता है । तुरीयावस्था में (जिसे जैन - परम्परा में उजागर, बहुजागरण दशा, केवलावस्था या समाधिअवस्था के नाम से अभिहित किया गया है) समग्र सांसारिक भाव समाप्त होकर स्व स्वरूप की जागृति हो जाती है । कहने का तात्पर्य यह कि तुरीयावस्था केवल तीर्थकर और सिद्ध जीवों में होती है, क्योंकि उन्होंने ज्ञानावरणीय कर्म के साथ दर्शनावरणीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का क्षय कर दिया है । तुरीयावस्था के प्राप्त होने पर निद्रा, स्वप्न तथा जाग्रत् ये तीनों अवस्थाएँ तिरोहित हो जाती हैं। इस अवस्था में आत्मा केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन से युक्त होकर स्व-स्वभाव में रमण करता है । वह मात्र ज्ञाता-द्रष्टा (साक्षी) होता है । बन्धन ( दुःख) और उसका कारण अब तक हमने आत्मा के स्वरूप, आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ आदि आत्मतत्त्व सम्बन्धी विचारधाराओं का अवलोकन किया । उपर्युक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट हो गया कि स्वभावतः आत्मा ज्ञान-दर्शन आदि गुणों से युक्त है, किन्तु वर्तमान में कर्मावरण के कारण उसके ये गुण पूर्ण रूप में प्रकट नहीं हैं । वह इस संसार में अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है और जन्म, जरा और मृत्यु के दुःख भोग रहा है। सामान्यतया संसार के सभी प्राणियों में स्वाभाविक रूप से दुःखों से बचने की प्रवृत्ति पाई जाती है, जिसे मनोवैज्ञानिक भाषा में मूलप्रवृत्ति कहा गया है । मनुष्य के सारे प्रयत्न इसी दिशा में हो रहे हैं । सामान्यतः जन्म, जरा, रोग और मृत्यु दुःख माने गए हैं और इन्हीं से मानव मुक्त होना चाहता है । उत्तराध्ययन में तो स्पष्टतः कहा गया है : जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ की सन्ति जंतुणो ॥ ' अर्थात् जन्म दुःखमय है, जरा दुःखमय है, रोग और मृत्यु दुःखमय है, यह संसार ही दुःखमय है, जिसमें प्राणी निरन्तर कष्ट पाते रहते हैं । इसो १. उत्तराध्ययन सूत्र, १९/१६
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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