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________________ २०८ आनन्दघन का रहस्यवाद मूढ़ मानव धन का संरक्षण करने हेतु धन को जमीन में गाड़ता है और उस पर धूल डालता है, किन्तु वस्तुतः वह धन के ऊपर धूल नहीं डाल रहा है, प्रत्युत अपने पर ही धूल डाल रहा है। इसका कारण यह है कि धन के प्रति अत्यधिक मूर्छा होने से, वह मर कर उसी धन की रखवाली करनेवाला सर्प, चूहा आदि बनता है। इसीलिए ऐसी सम्पदा को अलक्ष्मी कहा गया है। एक अन्य पद में बहिरात्मवर्ती मूढ़ मनिव की विचित्र दशा का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि मूढ़ मानव गर्भावस्था के समस्त कष्टों को विस्मृत कर पुत्र-पत्नी, धन-यौवन आदि को पाकर फूला नहीं समा रहा है और इसी में मस्त होकर जीवन को सफल समझ रहा है। किन्तु आनन्दघन ऐसे मानव पर तीक्ष्ण प्रहार करते हुए कहते हैं कि जीउ जानै मेरी सफल घरी। सुत बनिता धन यौवन मातो, गरभ तणी वेदन बिसरी ॥ अति अचेत कछु चेतत नाही, पकरी टेक हारिल लकरी। आइ अचानक काल तोपची, गहैगौ ज्यूं नाहर बकरी ॥ सुपन राज सांच करि राचत, माचत छांह गगन बदरी। आनन्दघन हीरो जन छारै, नर मोह्यो माया कंकरी ॥' हे मूढ़ ! तू पुत्र-परिवार, धन-दौलत में आसक्त होकर आत्म-विस्मृत हो चुका है और अपनी चोंच में सदैव लकड़ी का टुकड़ा लिए रहने वाले हारिल पक्षी की भाँति तूने भी मोह-माया में फँसे रहने की प्रवृत्ति अपना ली है, लेकिन तुझे यह ज्ञात नहीं है कि जैसे सिंह अकस्मात् बकरी को पकड़ लेता है, वैसे ही कालरूपी तोपची तुझ पर आक्रमण कर देगा। फिर भी, तू स्वप्नावस्था में प्राप्त राज्य की भाँति और आकाश में छाए हुए बादल की तरह धन-यौवन आदि को सत्य मानकर उसी में मग्न हो रहा है। कितना आश्चर्य है कि मूढ़ मानव अनन्त आनन्दमय आत्म-स्वरूप रूप हीरे को छोड़कर कंकर-पत्थर रूप माया-जाल में मोहित हो रहा है। इसी तरह अन्यत्र भी उन्होंने मूढ़ मानव की भारी मूर्खता को प्रदर्शित करते हुए कहा है खगपद मीन पद जल में, जो खोजे सो बोरा । १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३ । २. वही, पद ९७ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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