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आनन्दघन का रहस्यवाद
जीवात्मा और परमात्मा ।' नाण्डुक्योपनिपद में आत्मा के चार भेद माने हैं: अन्तः प्रज्ञ, बहिष्प्रज्ञ, उभयप्रज्ञ और अवाच्य । २
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सन्त आनन्दघन ने भी आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं के स्वरूप का विवेचन किया है । अतः आत्मा की तीनों अवस्थाओं का स्वरूप एवं लक्षण क्या है, बहिरात्म - दशा से अन्तरात्म- दशा तक कैसे पहुँचा जा सकता है और उस अवस्था तक पहुंचने के क्या उपाय हैं आदि प्रश्नों को चर्चा करना आवश्यक है ।
सर्वप्रथम आत्मा के त्रिविध वर्गीकरण की चर्चा करते हुए आनन्दघन कहते हैं :
त्रिविध सकल तनुधर गत आतमा, बहिरातम अधरूप सुज्ञानी । बीजो अन्तर आतमा, तीसरो परमातम अविच्छेद सुज्ञानी ॥ २ समस्त देहधारियों में तीन प्रकार की आत्मा होती है - १ - बहिरात्मा, २ - अन्तरात्मा, और ३ - परमात्मा । आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ केवल शरीरधारी जीवों की दृष्टि में रखकर प्रतिपादित हैं । सिद्धों में उक्त अवस्थाएँ नहीं होतीं । सामान्यतः जीव के दो भेद माने गये हैं: संसारी और सिद्ध । संसारी जीवों में आत्म- गुणों के विकास की दृष्टि से आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ कल्पित की गई हैं । इन तीन अवस्थाओं के लक्षणों के आधार पर साधक यह जान सकता है कि वह किस अवस्था में है । वस्तुतः ये तीनों प्रकार की आत्माएँ उत्तरोत्तर निर्मलतर हैं अर्थात् आत्मगुणों की विकास की दृष्टि से उत्तरोत्तर आगे बढ़ी हुई हैं । इनमें निम्नतम प्रकार बहिरात्मा का है, द्वितीय प्रकार अन्तरात्मा का है, जो बहिरात्मा से अधिक निर्मल एवं श्रेष्ठ है, किन्तु इन दोनों से भी श्रेष्ठतम तीसरा प्रकार परमात्मा का है जो निर्मलतम है । इस परमात्म-अवस्था को प्राप्त
१. छान्दोग्य, ३०८, ७-१२
उद्धृत —— परमात्म प्रकाश, प्रस्तावना, पृ० १०७ ।
२. नान्तः प्रज्ञं न बहिः प्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञान धनं न प्रज्ञनाप्रज्ञम् ॥ अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्यय सारं
प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवं अद्वैतं चतुर्थं मन्यतेस आत्मा स विज्ञेयः ॥७॥ - माण्डूक्योपनिषद् |
३. आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमतिजिन स्तवन ।