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________________ २०० आनन्दघन का रहस्यवाद रहता है और आत्मा की सहर्मिणी होने के नाते मुझे (समता को) भी लोगों के उपालम्भ सुनने पड़ते हैं। इससे हृदय अत्यन्त व्यथित हो जाता है।' जब आत्मा की अशुद्ध चेतना शुद्ध चेतना को छोड़कर राग-द्वेष रूप पर घर में भटकती है तब बुद्धिमान् इसे व्यभिचारिणी कहे तो कोई अनुचित नहीं है। आत्मा की वैभाविक अवस्था का चित्र प्रस्तुत करते हुए आनन्दघन कहते हैं कि समता अपने प्रियतम आत्मदेव की विरूपावस्था का वर्णन करती हुई कहती है कि सखी ! इस चतुर नटनागर रूप आत्मा की वेशभूषा तो देखो अर्थात् इसके विकृत स्वरूप की ओर तो दृष्टिपात करो। यह अपने-अपने निज स्वरूप को भूलकर ममता के संग में ही खेल रहा है। इससे मेरी सिन्दुर रूप मांग फीकी लगती है। इसे कहां तक उपालम्भ दिया जाय, क्योंकि यह तो अनादिकाल से इसी तरह जीवन यापन कर रहा है। शरीर की सुध-बुध खोकर मन माना ऐसे घूम रहा है जैसे भंग पीकर मतवाला (पागल) बन गया हो। आत्मा ने अनादि काल से मोहरूपी भांग पी रखी है। इसीलिए वह यत्र-तत्र भटक रहा है। इसी तरह अनेक पदों में आनन्दघन ने ममता-माया, आशा-तृष्णा" आदि १. वारौ रे कोई पर घर भमवानो ढाल, नान्ही बुहु नै पर घर भमवानो ढाल । पर घर ममतां झूठा बोली थई देस्यै धनीजी नै आल ॥ अलवै चालो करती देखी, लोकडा कहिस्यै छिनाल । ओलभंडा जण जण ना आणी. हीय. उपासै साल ।। -आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४७ । २. देखौ आली नट नागर के सांग । और ही और रंग खेलत ताते फीकी लागत मांग ॥ उरहानौ कहा दीजै बहुत करि, जीवत है इहि ढांग । मोहि और बिच अंतर एतो जेतो रूपै रांग ॥ तन सुधि खोर घूमत मप ऐसे, मानु कछु खांई भांग। ऐते पर आनन्दघन नावत, कहा और दीजै बांग॥ -वही, पद २१ । ३. वही, पद ४६ । ४. वही, पद ४३ । ५. अनुभौ तू है हितु हमारौ । आउ उपाउ करो चतुराई, और को संग निवारो॥ mro
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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