________________
१९६
आनन्दघन का रहस्यवाद
तात्पर्य यह है कि आत्मा का 'स्व' में रमण करना ही स्वभाव-दशा है और 'पर' में विचरण करना ही विभाव-दशा है। यह स्वाश्रित और पराश्रित दशाएँ ही आनन्दघन के रहस्यवादी दर्शन में आत्मा की स्वाभाविक एवं वैभाविक अवस्था है। और यही क्रमशः समता और ममता है।
यद्यपि जैन-परम्परा में 'स्वभाव' और 'विभाव' अति प्रचलित शब्द हैं, तथापि सामान्यतः स्वभाव से अभिप्राय है-स्व-स्वरूप में अवस्थित निर्मल, निर्विकार, निष्कलुष, निरुपाधिक स्वाश्रित दशा और विभाव से तात्पर्य है विकृत-दशा में रहने वाली मलिन, विकारी, औपाधिक-सांयोगिक पराश्रित दशा। सरल शब्दों में कहें तो स्वभाव-दशा आत्मा की सात्त्विक वृत्ति की प्रतीक है और विभाव-दशा आत्मा की तामसिक वृत्ति की। आत्मा की तामसिक और सात्त्विक वृत्तियों के विषय में आनन्दघन का कथन है कि साधक समस्त सांसारिक प्रपंचों को छोड़ कर शुद्धात्म-स्वरूप का अवलम्बन लेकर सभी तमोगुणवाली (कषायादि राग-द्वेष रूप पर भावों) वृत्तियों का परित्याग कर सत्त्वगुण प्रधान समता, दया, क्षमा, सन्तोषादि सात्त्विक वृत्तियों को अपनाए।२
यद्यपि स्वभाव और विभाव-दशाएँ परस्पर विरुद्ध हैं, तथापि दोनों आत्माश्रित हैं। यहां प्रश्न उठता है कि ये दोनों विरोधी दशाएँ आत्मा में कैसे रहती हैं ? इसका सीधा-सा उत्तर है। जब आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थिर रहता है, उस समय उसमें राग-द्वेषादि पर-भाव नहीं रहते और राग-द्वेष का अभाव ही आत्मा की समत्व-दशा है, क्योंकि जैनागम आचारांग एवं भगवती सूत्र में समत्व या समता को आत्मा का धर्म १. शुद्धातम अनुभव सदा, स्व समय एह विलास रे । पर बड़ी छांहड़ी जे पड़े, ते पर समय निवास रे ।।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, अरजिन स्तवन । तुलनीय-प्रवचनसार, गाथा २, ज्ञेयतत्त्वाधिकार । २. शुद्ध आलम्बन आदरै, तजि अवर जंजाल रे । तामसी वृत्ति सवि परिहरि, भजे सात्त्विक साल रे ॥
-आनन्दधन ग्रन्थावली, शान्ति जिन स्तवन । ३. समियाए धम्मे आरियेहि पवेइए। -आचारांग, १८३ ४. आयाए सामाइए, आया सामाइस्स अट्ठे। -भगवती, १।९।२२८