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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
सूत्र में कहा गया है कि 'कडाण कम्पाण न मोक्ख अत्थि'–कृत कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा का छुटकारा नहीं हो सकता। किन्तु कर्मवाद का यह सिद्धान्त अनित्य-आत्मवाद पर लागू नहीं हो सकता।
अनित्य आत्मवाद का खण्डन न केवल आनन्दघन ने प्रत्युत कुमारिल, शंकराचार्य, जयन्त भट्ट तथा मल्लिषेण आदि ने भी किया है। इनके अतिरिक्त आप्त मीमांसा एवं युक्त्यानुशासन में भी अनित्यवाद पर कई आक्षेप किए गए हैं।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि सन्त आनन्दघन ने नित्य-आत्मवाद और अनित्य आत्मवाद के सम्बन्ध में जो आक्षेप या दोष दर्शाएँ हैं, वे स्याद्वाद मंजरी में वर्णित दोषों के विपरीत प्रतीत होते हैं। स्याद्वाद मंजरी में जैनदार्शनिक कल्लिषेण ने नित्य आत्मवाद का खण्डन सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष आदि के आधार पर किया है, लेकिन आनन्दघन ने कृत विनाश और अकृतागम इन दो दोषों के आधार पर खण्डन किया है। इसी तरह, मल्लिषेण ने अनित्य आत्मवाद का खण्डन कृत प्राणाश, अकृत भोग भवभंग, प्रमोक्ष भंग तथा स्मृति भंग दोषों के आधार पर किया है, और आनन्दघन ने बन्ध-मोक्ष और सुख-दुःख भोग आदि की असम्भावना के आधार पर खण्डन किया है। वस्तुतः दोनों का नित्य आत्मवाद और अनित्य आत्मवाद का खण्डन सर्वथा तर्क विपरीत प्रतीत नहीं है, क्योंकि जो दोष एकान्त नित्य आत्मवाद के मानने पर होते हैं वे ही दोष एकान्त अनित्य आत्मवाद पर भी लागू होते हैं। इसी भांति अनित्य आत्मवाद १. उत्तराध्ययन, ४।३
आप्त मीमांसा, ४०-४१ । युक्त्यानुशासन, १५।१६ नैकान्तवादे सुखदुःख भोगौ न पुण्य पापे न च बन्धमोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं पविलुप्तं जगदप्यशेषम् ।।
-स्याद्वादमंजरी, श्लोक २७ । ५. कृतप्रणाशाकृत कर्मभोग भव प्रमोक्ष स्मृति भंगदोषान् । उपेक्ष्य साक्षाद् क्षणभंगमिच्छन्नहो महासाहसिकः परस्ते ॥
-वही, श्लोक १८। ६. य एव दोषाः किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि समास्त एवं । परस्पर ध्वंसिषु कण्टकेषु जयत्थ धृष्यं जिनशासनं ते ॥
-वही, श्लोक २६ ।
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