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आनन्दघन का रहस्यवाद यह आत्मा तो आत्मा द्वारा ही जाना जा सकता है। योगशास्त्र में भी कहा गया है-'आत्मानमात्मना वेत्ति'।' ____ आनन्दधन के इस आत्म-अनिर्वचनीय स्वरूप की तुलना कबीर से की जा सकती है। कबीर ने भी उसे 'गूगे का गुड़' कहा है, क्योंकि उसका वर्णन कैसे किया जाय ? जो परिलक्षित होता है, वह ब्रह्म है नहीं
और वह जैसा है उसका वर्णन सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि वह न दृष्टि में आ सकता है और न मुष्टि में ।। नित्यवाद और अनिन्यवाद
भारतीय-दार्शनिक-जगत् में यह प्रश्न सदैव विवादास्पद रहा है कि आत्मा नित्य है या अनित्य अथवा नित्यानित्य ? इस सम्बन्ध में हमें मुख्य रूप से ये मत दृष्टिगत होते हैं
(१) आत्मा नित्य है-उपनिषद्, वेदान्त तथा सांख्य-योग, (२) आत्मा अनित्य है-चार्वाक और बौद्ध-दर्शन, (३) आत्मा नित्यानित्य है-जैनदर्शन, इस प्रसंग में 'नित्य' और 'अनित्य' शब्द के अभिप्राय को जान लेना आवश्यक है। भारतीय-दार्शनिकों ने इसे अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया है। नित्य शब्द के दो प्रमुख अर्थ रहे हैं-(१) शाश्वत और (२) अपरिवर्तनीय ।
सरवंगी सब नइ धणी रे, मान सब परवान । नयवादी पल्लो गहै प्यारे, करइ लराइ ठान ।। अनुभव गोचर वस्तु को रे, जाणि वो इह इलाज । कहण सुणण को कुं कछु नहीं प्यारे, आनन्दघन महाराज ।।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६१ । २. योगशास्त्र, चतुर्थ प्रकाश, २। ३. बाबा अगम अगोचर कैसा, ताते कहि समुझावौं ऐसा।
जो दीसै सो तो है वो नाहीं, है सो कहा न जाई । सैना बैना कहि समुझावों, गूगे का गुड़ भाई। दृष्टि न दीसै मुष्टि न आवै, विनसै नाहि नियारा । ऐसा ग्यान कथा गुरु मेरे, पण्डित करो बिचारा ॥
-कवीर ग्रन्थावली, पद पृ० १२६ ।