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आनन्दधन का रहस्यवाद स्वरूप चेतनमय है, आनन्दमय है। सच्चा साधक इस आत्म-स्वरूप पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है।' आनन्दघन के उक्त विचारों की तुलना कबीर के विचारों से भी की जा सकती है, क्योंकि कबीर ने भी कहा है कि आत्म-तत्त्व अनुपम है। इसकी कोई पहचान नहीं होती। इसका मर्म कोई नहीं जान सकता।
आत्मा का अनिर्वचनीय स्वरूप
जहां एक ओर आनन्दघन ने विधि एवं निषेध रूप से आत्मा के स्वरूप को प्रतिपादित किया है, वहीं उन्होंने आत्मा के अनिर्वचनीय रूप को भी प्रस्तुत किया है। आत्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि आत्मा की पहचान कैसे बताऊं, इसका स्वरूप तो वचनातीत है। वाणी द्वारा इसका कथन किया नहीं जा सकता। यदि आत्मा को रूपी कहता हूँ तो वह आँखों द्वारा दिखलाई नहीं पड़ता और यदि उसे अरूपी कहता हूँ तो अरूपी तत्त्व को रूप (शरीर) की सीमा में कैसे बांधा
१. अवधू नाम हमारा राखै, सोइ परम महारस चाखै ।
ना हम पुरुष ना हम नारी, बरन न भांति हमारी । जाति न पांति न साधु न साधक, ना हम लघु नहि भारी॥ ना हम ताते ना हम सीरे, ना हम दीरघ ना छोटा । ना हम भाई न हम भगनी, ना हम बाप न धोटा । ना हम मनसा ना हम सबदा, ना हम तन की धरणी। न हम भेष भेषवर नाही, ना हम करता करणी ॥ न हम दरसन ना हम फरसन, रस न गंध कछु नाहीं । आनन्दघन चेतन मय मूरति, सेवक जब बलि जाहों ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ११ । राम के नाई बीसांन बाबा, ताका मरम न जानै कोई । भूख त्रिषा गुण वाके नाहीं, घट घट अंतरि सोई ॥ टेक । वेद बिबर्जित भेद बिबर्जित पाप रु पुण्यं । ग्यान बिबर्जित ध्यान बिबर्जित, बिबर्जित अस्थूल सून्यं ।। भेष बिबर्जित भीख बिबर्जित, बिबर्जितऽयंमेक रूपं । कहै कबीर तिहूं लोक बिबर्जित, ऐसा तत्त अनूपं ॥ .
-कबीर ग्रन्थावली, पृ० १६२, २२० ।