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आनन्दघन का रहस्यवाद
पाश्चात्य विचारकों ने ज्ञान के तीन स्तर माने हैं
१. इम्पेरिकल नालेज (ऐन्द्रिक अनुभवात्मक-ज्ञान), २. रेशनल नालेज (बौद्धिक ज्ञान) और
३. इन्ट्युशनल नालेज (अन्तर आत्म-ज्ञान)। आचारांग', भगवती, दशवकालिक समयसार' आदि में आत्मा के ज्ञान लक्षण पर बल दिया गया है, जबकि आनन्दघन ने आत्मा को निश्चय नय से ज्ञान लक्षण युक्त और व्यवहार नय से उसे कर्मों का कर्ता एवं सुखदुःखादि कर्मफलों का भोक्ता भी माना है। कर्तत्व आत्मा के कर्तृत्व पक्ष पर प्रकाश डालते हुए आनन्दघन ने कहा है :
कर्ता परिणामी परिणामो, करम जे जीवै करिये रे।
• एक अनेक रूप नयवादे, नियते नर अनुसरिये रे ॥ “आत्मा कर्ता है' इस बात को सिद्ध करते हुए वे कहते हैं कि परिणामी (परिवर्तनशील) आत्माकर्ता है, इसलिए कर्म रूप उसका परिणाम भी होना चाहिए, क्योंकि आत्मारूप कर्ता कर्म रूप क्रिया करता है। इसी कारण उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि 'करम जे जोवै करिये रे' -आत्मा (जीव) द्वारा किया गया कर्म ही कर्मरूप परिणाम है । परिणामों में कम, कम फल आदि समाहित हैं। आत्मा जो क्रिया करता है वही कर्म है अथवा 'क्रियते अनेन इति कर्म' जिसके द्वारा किया जाय वह कर्म है। आनन्दधन ने इसी दृष्टि से कहा है कि नयवाद की अपेक्षा से इस कर्तृत्व के एक नहीं, अनेक रूप हैं। यथा-निश्चय नय से आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव का कर्ता है। अशुद्ध निश्चय नय से वह रागादि भावों का कर्ता है। व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मों का एवं शारीरिक क्रियाओं का कर्ता है और उपचार से घर, नगर आदि का भी कर्ता है।
१. आचारांग, ११५१५ २. राणे पुण नियमं आया। -भगवती, १२।१० ३. वियाणिया अप्पगमप्पएणं । -दशवैकालिक सूत्र, ९।३।११ ४. ववहारेणु व दिस्सइ, णाणिस्स चरित्त दंसणं गाणं । णवि णाणं ण चरित्तंणं दसंणं जाणगो सूद्धो॥
-समयसार, गाथा ७ ॥ ५. आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन ।