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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार १७५ सुन्दर चित्रण उन्होंने वासुपूज्य जिन स्तवन में किया है। वस्तुतः आनन्दघन का 'चेतना' से तात्पर्य न तो चावकि-दर्शन की तरह पृथ्वी आदि चार भूतों से उत्पन्न गुण है और न न्याय-वैशेषिक के समान आत्मा का गुणविशेष है, प्रत्युत उनके अनुसार चेतना जानने-देखने रूप अर्थात् ज्ञान एवं अनुभूति रूप स्वभाव है। मुख्यतः चेतना दो प्रकार की है-ज्ञान चेतना और दर्शन-चेतना। आत्मा ज्ञान-दर्शनोपयोगमयी है। इसे ही आनन्दघन ने 'चेतना' कहा है। उपयोग ज्ञान-दर्शन रूप चेतना का परिणमन है। इसी लिए उपयोग को आत्मा का लक्षण माना गया है। आत्मा का जो भाव वस्तु को (ज्ञेय को) ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसको उपयोग कहते हैं।' यहां 'उपयोग' शब्द का अर्थ है-वस्तु के बोध के प्रति आत्मा की प्रवृत्ति अथवा विषय की ओर अभिमुखता। इसके दो भेद हैं-एक साकार उपयोग (सविकल्प) और दसरा निराकार उपयोग (निर्विकल्प)२। साकार उपयोग वस्तु के विशेष स्वरूप को ग्रहण करता है और निराकार उपयोग वस्तु के सामान्य स्वरूप को। आनन्दघन ने निराकार उपयोग को दर्शन-चेतना और साकार उपयोग को ज्ञान-चेतना कहा है। 'दर्शन' सामान्य की चेतना है और 'ज्ञान' विशेष की चेतना है। इस चैतन्यव्यापार से ही आत्मा की सत्ता का बोध होता है। आनन्दघन इस सम्बन्ध में कहते हैं कि
निराकार अभेद संग्राहक, भेद ग्राहक साकारो रे ।
दर्शन ज्ञान दु भेद चेतना, वस्तु ग्रहण व्यापारो रे ॥ उनके अनुसार चेतना वस्तु (ज्ञेय) को जानने-देखने के रूप में व्यापार है, जिसके ज्ञान और दर्शन दो भेद हैं। दर्शन-चेतना निराकार है और
१. उपयुज्यते वस्तु परिच्छेदं व्यापार्यते जीवोऽने नेत्युपयोगः । २. स द्विविधोऽष्ट चतुर्भेदः ।
-तत्त्वार्यसूत्र, २१९ ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन । तुलनीय-निराकार चेतना कहावै दरसन गुन,
साकार चेतना सुद्ध ग्यान गुनसार है। चेतना अद्वैत दोऊ चेतन दख मांहि, सामान विशेष सत्ता ही कौ बिसतार है ।।
-समयसार-नाटक, मोक्षद्वार, १० ।