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________________ १६२ आनन्दघन का रहस्यवाद तर्क बिचारे वाद परम्परा रे, पार न पहुँचे कोय । अभिमत वस्तु वस्तु गते कहै रे, ते बिरला जग जोय ॥' तर्क द्वारा यदि परमात्मा के पथ को खोजने का प्रयास किया जाय तो वादों की परम्परा ही दृष्टिगत होती है। वाद-विवाद का कहीं अन्त ही नहीं दिखाई देता। दूसरी ओर, परमात्मा के मार्ग का यथातथ्य रूप में कथन करने वाले इस संसार में विरले ही महापुरुष दिखाई देते हैं। तात्पर्य यह कि जिन्होंने आत्मानुभूति की है, वे ही सम्यक् पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं। वाद-विवाद द्वारा परमात्मा के मार्ग को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह उक्ति प्रसिद्ध है कि 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः 'वाद-प्रतिवाद से तत्त्व का बोध होता है, किन्तु प्रायः यह देखा जाता है कि वाद-विवाद में तत्त्वबोध के स्थान पर कलह का वातावरण खड़ा हो जाता है और तत्त्वबोध कहीं रह जाता है। यह सत्य भी है कि वाद-प्रतिवाद द्वारा तत्त्व के मर्म को नहीं जाना जा सकता। हरिभद्र सूरि ने यथार्थ ही कहा है कि तिल पिलने वाले बैल की गति की भांति वाद और प्रतिवाद द्वारा तत्त्व के रहस्य तक नहीं पहुंचा जा सकता।२ आचारांग चूणि में भी कहा गया है कि 'राग-दोस करो वादो' । प्रत्येक 'वाद' राग-द्वेष की वृद्धि करनेवाला है। मुनिराम सिंह ने भी सिद्धान्तों की व्याख्या मात्र करते घूमनेवाले तर्कपटु पण्डितों के विषय में कहा है कि ऐसे लोग बुद्धिमान् कहलाते हुए भी मानो अन्न के कणों से रहित पुआल का संग्रह करते हैं और कण का परित्याग कर उसकी भूसी मात्र कूटा करते हैं। बहुत पढ़ने से क्या लाभ ? षड्दर्शनों के झमेले में पड़कर भ्रान्ति नहीं मिट सकती, एक देव के छह भेद कर दिए, किन्तु उससे मोक्ष के निकट नहीं पहुँच सके । १. आनन्दघन ग्रन्थावली, अजित जिन स्तवन । २. वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तो, निश्चितांस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति तीलपीलकवद् गतौ ॥ -योगबिन्दु, श्लो० ६७ । ३. आचारांग चूर्णि, ११७१ ४. पाहुड़ दोहा, ८४-८५-८७ । ५. छह सण घंघइपडिय, मणंहण फिट्टिय भंति । एक्कु देउ छह भेउ किउ, तेण ण मोक्ख जन्ति । -वही, ११६ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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