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आनन्दघन का रहस्यवाद
आनन्दघन ने ही नहीं पूर्ववर्ती सुप्रसिद्ध तार्किक आचार्य अकलंक, मुनि योगीन्दु, आचार्य हरिभद्र,आचार्य हेमचन्द्र आदि ने भी परमतत्त्व (परमात्मा) को व्यापक एवं नमन्वयात्मक-दृष्टिकोण के रूप में देखा है । आचार्य अकलंक ने कहा है कि जिसने जानने योग्य सब कुछ जान लिया है, जो जन्मरूपी समुद्र की तरंगों के पार पहुंच गया है, जिसके वचन, दोष रहित, अनुपम और पूर्वापर विरोध रहित हैं, जिसने अपने सारे दोषों का विध्वंस कर दिया है और इसीलिए जो सम्पूर्ण गुणों का भण्डार बन गया है तथा इसी हेतु जो सन्तों द्वारा वन्दनीय है, चाहे वह कोई भी हो, बुद्ध हो, वर्द्धमान हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो अथवा महादेव हो।' ___ मुनियोगीन्दु ने भी कहा है कि परमात्मा ही निरंजन देव है, शिव, ब्रह्मा, विष्णु है। एक ही परमतत्त्व के ये विभिन्न नाम हैं। यह निरंजन देव ही परमात्मा है। इसे जिन, विष्णु, बुद्ध और शिव आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। आचार्य मानतुंग ने भी जिनेन्द्र देव को बुद्ध, शंकर, विधाता, पुरुषोत्तम आदि शब्दों से सम्बोधित किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी सोमनाथ के मन्दिर में बिना किसी तरतमांश के उस देव को नमस्कार किया है जिसके रागादि दोष क्षय हो चुके हैं, फिर वह देव चाहे ब्रह्मा, विष्णु, हर या जिन कोई भी हो। इसी तरह एक अन्य जैन १. यो विश्वं वेद वैद्यं जनन जल निधेर्भ गिनः पार दृश्वा
पौर्वापर्या विरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलंक यदीयम् । तं वन्दे साधु वंद्यं निखिल गुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषन्तं ।
बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा । २. सो सिउ संकरु विण्हु सो, सो रुद वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसरू बंभु सो, सो अंणतु सो सिद्ध ॥ १०५ ॥
-योगसार, पृ० ३८३ । ३. बुद्धस्त्वमेव विबुधर्चित बुद्धि बोवात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् । घाताऽसि धीर ! शिवमार्गविधेविधानात् , व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥
-भक्तामर स्तोत्र । ४. यस्म निखिलाश्च दोषा, न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥
-लोकतत्त्व निर्णय, श्लो० ४० ।