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आनन्दघन का रहस्यवाद
राम कहौ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कहौ महादेव री।
पारसनाथ कही कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री ॥' वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि ब्रह्म या परमतत्त्व एक है। उस परमतत्त्व को चाहे कोई राम कहे या रहमान, कृष्ण कहे या महादेव, पार्श्वनाथ कहे या ब्रह्म । किन्तु वह महाचैतन्य परमतत्त्व स्वयं ब्रह्म स्वरूप ही है अर्थात् शुद्धात्म-स्वरूप ही है। उसमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। उनका यही शुद्धात्म-स्वरूप परमतत्त्व राम-रहीम, महादेव आदि सब कुछ है। न उनमें किसी तरह का तरतमांश है और न उनके नाम-रूप में भेद । उनका कथन है कि
भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री।
तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥२ जिस प्रकार मिट्टी एक होकर भी पात्र-भेद से अनेक नामों से पुकारी जाती है (जैसे, यह घड़ा है, यह कुण्डा है, यह गिलास है, यह प्याला है आदि)। उसी प्रकार एक अखण्ड रूप परमतत्त्व (शुद्धात्मा) में विभिन्न कल्पनाओं के कारण, अनेक नामों की कल्पना कर ली जाती है, किन्तु वस्तुतः वह तो अखण्ड स्वरूप ही है। आनन्दघन के इस पद की तुलना कबीर से की जा सकती है।
वैसे परमतत्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध में किसी को भ्रान्ति न हो इसलिए आनन्दघन ने उसके सम्बन्ध में स्पष्टीकरण भी कर दिया है। उन्होंने उदार शब्दों में कहा है कि 'उनका राम वह है जो निज पद (स्व-स्वरूप) में रमण करता है, उनका रहमान वह है जो दूसरों पर रहम (करुण-दया) करता है, कृष्ण वह है जो कर्मों का कर्षण करता है, महादेव वह है जो निर्वाण प्राप्त कर चुका है, पार्श्वनाथ वह है जो ब्रह्म रूप का स्पर्श करता है और जिसे ब्रह्म की अनुभूति है वही ब्रह्म है। इस प्रकार, उनके मन्तव्यानुसार कर्मों से आलिप्त, अथवा निष्कर्म (कर्म-उपाधि से रहित) शुद्ध
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६५ । २. वही पद ६५। ३. कबीर ग्रन्थावली, पद ३२७, पृ० १९९ ।