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आनन्दघन का रहस्यवाद
सिन्ध में सर्वदर्शन रूप सरिताओं को (समग्र दृष्टि-बिन्दुओं को) समाहित किया। इन सभी जैनाचार्यों में विशेष रूप से आचार्य हरिभद्र की दार्शनिक क्षेत्र में सर्वधर्म-पतिाना सुविख्यात है। उनका 'शास्त्रवार्ता-समुच्चय तथा 'षट्दर्शन-समुच्चय' ग्रन्थ षट्दर्शनों की निष्पक्ष समालोचना का ज्वलन्त उदाहरण है। उनकी मध्यस्थ भावना निम्नांकित शब्दों में द्रष्टव्य है :
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः ॥' परमात्मा महावीर के प्रति न मेरा कोई पक्षपात है और न मेरा महर्षि कपिल, महात्मा बुद्ध आदि के प्रति कोई द्वेष। जिसका भी वचन यथार्थ हो, उसे स्वीकार करना चाहिए। इसी तरह 'उपदेश-तरंगिणी' में भी उन्होंने कहा है कि मुक्ति न तो दिगम्बरत्व में है, न श्वेताम्बरत्व में, न तर्कवाद में, न तत्त्ववाद में और न किसी एक पक्ष का समर्थन करने में ही है । वस्तुतः कषायों से मुक्त होना ही मुक्ति है।'
इस समन्वयात्मक-पद्धति का अनुसरण आनन्दघन तथा उनके समकालीन उपाध्याय यशोविजय की कृतियों में भी दृष्टिगत होता है । वास्तव में सन्त आनन्दघन ने सत्रहवीं शती में धार्मिक एवं दार्शनिक-जगत् में व्याप्त संकीर्ण विचारधारा को दूर करने का प्रबल प्रयास किया। यही कारण है कि उनकी कृतियों में कहीं भी किसी धर्म या दर्शन के सिद्धान्तों के प्रति अनादर बुद्धि या संकुचित वृत्ति दिखाई नहीं देती। उन्होंने सर्वधर्मों एवं दर्शनों का समादर कर उनमें समन्वय स्थापित किया, यद्यपि उनके समय में साम्प्रदायिक संकीर्णता अत्यधिक थी। इतना ही नहीं, उस समय भारत में औरंगजेब का शासन होने से धार्मिक कट्टरता के कारण हिन्दू-मुसलमानों के मध्य भी विषमतापूर्ण व्यवहार था। कोई राम को लेकर तो कोई रहीम को लेकर अपने-अपने आराध्य को सर्वश्रेष्ठ
१. लोकतत्त्व निर्णय, हरिभद्रसूरि विरचित, श्लो० ३८ । २. नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्क वादे न च तत्त्ववादे । न पक्ष सेवाऽऽश्रयणेन मुक्तिः कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥
-उपदेशतरंगिणी, प्रथम तरंग, तप उपदेश, श्लो० ८, पृ० ९८ ।