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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
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वस्तुतः आत्मा में सभी नय घटित होते हैं। अतः यह आत्मा नय और प्रमाण से जाना जाता है । यह (आत्मा) सर्वांगी और स्वयं सब नयों का स्वामी है। इसका रूप एक नय द्वारा सिद्ध नहीं हो सकता। सब दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर ही इसका स्वरूप समझा जा सकता है। अन्ततः आनन्दधन ने नयवाद से भी ऊपर उठकर आत्मा को अनुभवगम्य बताया है। उनका स्पष्ट कथन है कि यह आत्मा अनुभव ज्ञान से ही जाना जा सकता है।' समन्वयात्मक दृष्टि
आनन्दघन के रहस्यवाद में हमें समन्वयात्मक-शैली के भी दर्शन होते हैं। यह पद्धति पूर्व पद्धतियों की अपेक्षा अधिक सरल और सुगम है। अतः जन साधारण के लिए यह पद्धति अति उपयोगी है। यह वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव दुराग्रहपूर्ण विचारों से ऊपर उठकर समन्वयसाधना की ओर प्रवृत्त होता है। इसके द्वारा आनन्दधन ने परम-तत्त्व तथा षट्दर्शनों का जो विवेचन किया है, उसमें संकीर्णता, कट्टरता तथा अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रति तनिक भी विद्वेष की गन्ध नहीं मिलती। उनका एक मात्र लक्ष्य था, मानव-समाज को संकीर्णता के दायरे से मुक्त कर उनमें समन्वय तथा सौहार्द्र भाव स्थापित करना ।
जैनधर्म की दृष्टि आरम्भ से ही उदार, व्यापक एवं समन्वयात्मक रही है। 'नमोकार महामन्त्र' इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसके पाँचों पद व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। उसमें लोक के सभी साधुओं को वन्दना कर एक व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण का परिचय दिया गया है। जैन तत्त्व-चिन्तन में इस पद्धति का विकसित रूप हमें परिलक्षित होता है। जैनधर्म में समन्वयात्मक दृष्टि पर जितना अधिक बल दिया गया, • उतना कदाचित् अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता । जैन दार्शनिकों ने सर्वधर्मों एवं दर्शनों के प्रति माध्यस्थ-भाव का आदर्श उपस्थित किया है।
व्यापक एवं समन्वयात्मक शैली की परम्परा को उजागर करने वाले जैनाचार्यों में मुख्यरूप से सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, अकलंक, हरिभद्र तथा हेमचन्द्र आदि के नाम लिये जा सकते हैं, जिन्होंने जैनदर्शन रूप
१. आनन्दघन ग्रन्थावली. पद ६१ ।