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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
जैन दर्शन में आत्मा के घटने-बढ़ने की अर्थात् गंकोच-विस्तार की जो बात है, वह व्यवहार नय की दृष्टि को लक्ष्य करके है, किन्तु निश्चय नय की दष्टि से तो आत्मा संकोच-विस्तार के गुण से रहित परम आनन्द रूप है। आत्मा के बन्धन और मोक्ष के सम्बन्ध में कहा गया है :
बंधन मोख निहचै नहीं, विवहारी लखि दोय ।
कुशल खेम अनादि ही, नित्य अबाधित होय ॥' आचार्य कुन्दकुन्द के समान आनन्दघन का भी स्पष्ट अभिमत है कि निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया से रहित है। 'बन्धन' और 'मोक्ष' के प्रत्ययों की अवधारणा केवल व्यवहार नय से सिद्ध होती है। क्योंकि बन्धन और मुक्ति दोनों आत्मा की पर्याय हैं। बन्धन अशुद्ध और मुक्ति शुद्ध पर्याय है। अतः पर्याय की दृष्टि से बन्धन-मुक्ति दोनों व्यवहाराश्रित हैं किन्तु निश्चय-दृष्टि से आत्मा इन दोनों से परे नित्य, शाश्वत और त्रिकालाबाधित है। मुनि योगीन्दु ने भी कहा है कि 'व्यवहारनय से आत्मा द्रव्य, कर्म, बन्ध, भावकर्म बन्ध और नौ कर्मबन्ध' में फंसता है। पुनः यत्न विशेष से कर्म बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है किन्तु परमार्थ (निश्चय) नय से आत्मा न तो कर्मबन्ध में फँसता है और न उसका मोक्ष होता है। वह बन्ध-मोक्ष से रहित है।"
सारांश यह कि आनन्दघन के दर्शन में आत्मतत्त्व की व्याख्या द्रव्य और पर्याय तथा निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से की गई है।
वस्तुतः निश्चय और व्यवहार-दोनों दृष्टियाँ अपने-अपने स्थान पर यथार्थ हैं। कोरे निश्चय से भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि साधक को व्यवहार भूमि पर चलना है। जो साधक शुद्ध निश्चय नय की उच्च भूमिका अर्थात् निर्विकल्प दशा तक नहीं पहुँचा है, वहाँ तक वह व्यवहार दृष्टि की अपेक्षा नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त जन साधारण को भी प्राथमिक भूमिका में व्यवहार द्वारा ही परमार्थ का उपदेश दिया जा
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३७ । २. बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहं कम्मुजणेइ । अप्पा किं वि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउं भुणइ ॥
-परमात्मप्रकाश, प्र० ख० ६५ ।