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आनन्दघन का रहस्यवाद करने का प्रयास किया है। जैन परम्परा में नयों की व्यवस्था तीन रूपों में दृष्टिगत होती है। उनमें प्रथम नैगम, संग्रह आदि के रूप में सप्तविध नयों का वर्गीकरण जैनागमों में मिलता है। दूसरा प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नामक द्विविध नय का है। इस सम्बन्ध में आचार्य सिद्धसेन का स्पष्ट कथन है कि "भगवान् महावीर के प्रवचन में वस्तुतः ये ही मूल दो दृष्टियाँ हैं, और शेष सभी दृष्टियाँ इन्हीं दो की शाखाप्रशाखाएँ हैं।"३ तीसरा प्रकार निश्चय और व्यवहारमूलक नयद्वय का है। इस सम्बन्ध में उपाध्याय यशोविजय ने भी कहा है कि अध्यात्म-दृष्टि से मूल नय दो ही हैं-एक निश्चय और दूसरा व्यवहार । उसमें भी निश्चय नय के दो भेद हैं-एक शुद्ध निश्चय नय और दूसरा १. अनुयोग द्वार सूत्र, १५६
(से किं तं गए ? सत्तमूलणया पण्णत्ता । तं जहा णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढे एवंभूए ।) एवं स्थानांगसूत्र ५५२, भगवती
सूत्र ४६९, तत्त्वार्थ० १॥३४ २. (अ) समासतस्तु द्विभेदो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च ।
-प्रमाणनय तत्त्वालोक, अ० ७।४।५। (ब) नयो द्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च ।
-सर्वार्थसिद्धि, ११६ । ३. तित्थयरमूलसंगह विसेस पत्यार मूलवागरणी । दवट्टिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासिं ॥
-सन्मति तर्क ११३, उद्धृत आगम युग का जैन दर्शन, पृ० ११७ । ४. (अ) पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूल नयौ द्वौ निश्चयो
व्यवहारश्च । तत्र निश्चयोऽभेद विषयो व्यवहारो भेद विषयः ।।
- -आलाप सिद्धि (ब) णिच्छय ववहारणया मूल भेयाण ताण सव्वाणं । णिच्छय साहण हेओ, दव्वपज्जत्थि आ मुणह ॥ ४ ॥
-आलाप पद्धति ५, गा० ४ एवं नयचक्र वृत्ति १८३ । (स) निश्चय व्यवहारोहि, द्वौ च मूल नयौ स्मृतौ । निश्चयो द्विविध स्तत्र, शुद्धाशुद्ध विभेदतः ॥ १॥
-अभिधानराजेन्द्र कोश, खण्ड ४, पृ० १८९२ ।