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आनन्दघन का रहस्यवाद
से उसमें असत् पक्ष भी है । ननु और अमतु पक्ष से ऊपर समग्रतः तो आत्मा वाच्य या अवक्तव्य है ।
अनेकान्त-दृष्टि अनन्त धर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को समझने की एक पद्धति है और स्याद्वाद उस अनेकान्तात्मक वस्तु की निर्दोष अभिव्यक्ति की शैली है, जिसे सप्तभंगी कहते हैं । इस प्रकार, ये तीनों परस्पराश्रित हैं । इसीलिए आनन्दघन ने अपनी विवेचन-पद्धति में इन तीनों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं की । उनके दर्शन में अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी की यह त्रिवेणी पाई जाती है ।
निश्चय और व्यवहारमूलक नय-पद्धति
नयवाद जैनदर्शन की नींव है । अनेकान्त दृष्टि का भव्य प्रासाद इसी पर टिका हुआ है । अत: अनेकान्त और नयवाद एक दूसरे से पूर्णतया पृथक् न होकर एक दूसरे के पूरक हैं । इन दोनों के मध्य अंगांगी भाव सम्बन्ध देखा जा सकता है। नयवाद वस्तु के विविध रूपों का विश्लेषण करता है । विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि जैनदर्शन में एक भी सूत्र और अर्थ ऐसा नहीं जो नय- शून्य हो ।' नयवाद का विषय अति गम्भीर, गहन एवं विस्तृत है । सामान्यतया उसे समझ पाना कठिन है । स्वयं आनन्दघन ने भी अभिनन्दन जिन स्तवन में नयवाद को अति दुर्गम बताते हुए कहा है :
हेतु विवाद हो चित्त धरी जोइए अति दुर्गम नयवाद । २ तुओं (तर्कों) के विवाद में चित्त को उलझा कर नयवाद का ज्ञान प्राप्त करना अतीव दुष्कर है, क्योंकि नयवाद के एक नहीं, अनेक भेद-प्रभेद हैं :
एक अनेक रूप नयवादे नियते नर अनुसरिए रे ।
इस प्रकार नयवाद की चर्चा आनन्दघन के अधिकांश पदों में उपलब्ध होती है । शान्ति जिन स्तवन में भी गुरु के उपदेश की महत्ता के प्रसंग में समग्र नयवाद का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं :
१. नत्थि नएहिं विहुणं सुत्तं अत्योय जिण मए किंचि । - विशेषावश्यक भाष्य, २२७७ ।
२. आनन्दघन ग्रन्थावली, अभिनन्दन जिन स्तवन । ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन ।