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आनन्दघन की विवेचन-पद्धति
वादी साधक का चरम लक्ष्य रहता है। जब उसे आत्मा-परमात्मा के अद्वैत की अनुभूति हो जाती है तो वह दाम्पत्य-प्रतीकों के द्वारा उस रहस्यानुभूति को विविधरूपों में अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में यह बता देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि जैनदर्शन में केवल आत्मा-परमात्मा का ही अद्वैत माना गया है. जबकि जैनेतर दर्शनों में आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त जड-चेतन का भी अद्वैत मान्य है। आनन्दघन के रहस्यवाद में भी केवल आत्मा-परमात्मा अथवा चेतन और समता के अद्वैतानुभूति की चर्चा ही परिलक्षित होती है।
आनन्दघन की यह अद्वैतानुभूति प्रेम पर आश्रित है किन्तु उनका वह प्रेम लौकिक न होकर अलौकिक-आध्यात्मिक है। वस्तुतः दाम्पत्यप्रतीकों को अपनाने के पीछे आनन्दघन का मूल कारण है आत्मापरमात्मा की अद्वैतानुभूति को अभिव्यंजित करना । इसके अतिरिक्त उनके दाम्पत्य-प्रतीकों पर किंचित् भक्तिमार्गीय धारा का प्रभाव भी दिखाई देता है।
आनन्दधन ने कतिपय पदों में संख्यावाचक प्रतीकों के प्रयोग भी किए हैं, जो बहुधा जैन-ग्रन्थों में पाए जाते हैं । ऐसे प्रतीकों का प्रयोग निम्नांकित पदों में द्रष्टव्य है :
पाँच तले है दुआ भाई, छका तले है एका।
सब मिलि होत बराबर लेखा, इह विवेक गिणवेका ।।' प्रस्तुत पद में 'पाँच' पंचाश्रव का प्रतीक है और 'दुआ' (दो) रागद्वेष की प्रवृत्ति का प्रतीक है, 'छह' षटकाय का प्रतीक है और 'एक' असंयम प्रवृति अथवा मन का प्रतीक है । अन्यत्र भी उन्होंने कहा है :
सत्तावन ने काढ़ो घरमा बैठा थीरे,
वीश ने कहो जाय इंहा धीरे
पछी अनुभव जागशे मांहे थीरे । ___ 'सत्तावन' बन्ध-हेतु के ५७ भेदों का प्रतीक है और 'तेईस' पांच इन्द्रियों के २३ विषयों का प्रतीक है। इसी तरह पांच अरु तीन-त्रिया,
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५६ । २. वही, पद १२१ ।