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महामंत्र की अनुप्रेक्षा मन का बल मंत्र से विकसित होता है । नमस्कार मनुप्य की स्वय की पूंजी है । नमन करना ही मानवमन एव बुद्धि का तात्त्विक फल है। नमः देवी गुण एव आध्यात्मिक सम्पत्ति है । दूसरो के गुण ग्रहण की शक्ति नमस्कार में निहित है। शरीर को मनसे अधिक महत्त्व नहीं मिलना चाहिए क्योकि शरीर रथ है एव मन अश्व है । मन रूपी अश्व को शरीर रूपी रथ के आगे जोतना चाहिए। __मन द्वारा ही तत्त्व की प्राप्ति होती है । शाश्वत सुख एव सच्ची शान्ति अन्तर्मन से प्राप्तव्य है। हाथी का शरीर वडा एव वजनदार होता है परन्तु वह कामी होता है । सिंह शरीर छोटा एव हल्का होते हुए भी हाथी की अपेक्षा काम का विजेता होता है । अत सिह हाथी को भी जीत लेता है। मनुष्य का मन सिंह से भी अधिक बलवान होने से वह सिह को भी वश मे कर के पिंजरे मे डाल देता है।
मन का वल मत्र से विकसित होता है, मत्रो मे सर्वश्रेष्ठ नमस्कार मत्र है। उससे काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेष एव मोहादि आन्तरिक शत्रु जीते जाते हैं । ___ नमस्कार मत्र मे पाप से घृणा है एव पापी के लिए दया है। पाप से घृणा आत्मबल का वर्द्धन करती है, नम्रता एव निर्भयता लाती है। पापी से घृणा आत्मवल को कम करती है, अहकार एव कठोरता लाती है। सच्चा नमस्कार प्रात्मा मे प्रेम एव अादर बढाता है, स्वार्थ एव कठोरता का त्याग करवाता है।
जितना अहकार होगा उतना ही सत्य का पालन कम