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________________ पू७ धर्मवृक्ष के मूल मे दया है । अत. धर्मवृक्ष के फल मे भी दया ही प्रकट होती है । साधु दया के भण्डार है तो अरिहत तथा सिद्ध भी दया के निधान है । दयावृत्ति तथा दया की प्रकृति मे तारतम्य भले ही हो पर सभी का आधार एक दया ही है, उसके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नही । कर्मक्षय का असाधारण कारण जीव का रूपान्तर करने वाले रसायन के स्थान पर एक दया है इसीलिए तीर्थंकरों ने दया को ही प्रशसित किया है। धर्मतत्त्व का पालन, पोषण तथा सवर्द्धन करने वाली मात्र दया ही है तथा वह दुखी एव पापी प्राणियो के दु.ख तथा पाप का नाश करने वाली वृत्ति तथा प्रवृत्ति रूप है तथा भायिकभाव मे सहज स्वभाव रूप है । वह स्वभाव दु.ख रूपी दावानल को एक क्षणमात्र में शान्त करने हेतु पुष्करावर्त्त नाम के वादलो के समान है । पुष्करावर्त मेघ की धारा जैसे भयंकर दावानल को भी शान्त कर देती है वैसे ही जिनको आत्मा का सहज स्वभाव प्रकट हुआ है उनके व्यान के प्रभाव से दुख दावानल मे जलते समारी जीवो का दु.खदाह एक क्षण भर में शमित हो जाता हैं। शुद्ध स्वरूप को प्राप्त अरिहतादि आत्मायो का ध्यान उनके पूजन, स्तवन तथा आज्ञापालन आदि द्वारा होता है। शुद्ध स्वरूप को प्राप्त आत्माओ का ध्यान ही परमात्मा का ध्यान है तथा यह निज शुद्धात्मा का ध्यान है । ध्यान से व्याता ध्येय के साथ एकता का अनुभव करता है वही समापत्ति है तथा वही कर्मक्षय का एक असाधारण कारण हैं । निज शुद्ध आत्मा द्रव्य, गुण तथा पर्याय से अरिहत तथा सिद्ध के समान है। अत. अरिहंत एवं सिद्ध परमात्मा का ध्यान द्रव्य, गुण तथा पर्याय
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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