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कृपापात्र एवं करुणावान प्रादि साधना की समग्र सामग्री निहित है । इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया का सुन्दर सुमेल होने से आत्मशक्ति के विकास हेतु उसमे परिपूर्ण सामर्थ्य है । अतः शास्त्रो में कहा गया है कि--
एसो अणाई कालो, अणाई जीवो य अणाई जिण धम्मो । तइवाविते पढंता,
ऐसुच्चिय जिण नमुक्कारो ।। काल अनादि है, जीव अनादि है एव जिन धर्म भी अनादि है । अत यह नमस्कार अनादिकाल से किया जा रहा है एव अनन्तकाल तक किया जायगा एव इसे करने वाले एव करवाने वाले का अनन्त कल्याण सम्पादित करेगा।
भव्यत्व परिपाक के उपाय
कर्म से सम्पृक्त होने की जीव की स्वय की योग्यता को सहजमल कहा जाता है एव मुक्ति से सम्पृक्त होने की जीव की योग्यता को भव्यत्व स्वभाव कहा जाता है। प्रत्येक जीव की योग्यता भिन्न-भिन्न होती है उसे तथा-भव्यत्व कहते है। सहजमल का ह्रास एव तथाभव्यत्व का विकास तीन साधनो से होता है जिसमे प्रथम दुष्कृत गर्दा, द्वितीय सुकृतानुमोदन तथा तृतीय अरिहतादि चार वस्तुप्रो की शरण जाना है। ___ मुख्य रूप से दुष्कृत गर्दा का प्रतिबन्धक राग दोष है, सुकृतानुमोदन का प्रतिबन्धक द्वाप दोष है एवं शरण गमन का प्रतिबन्धक मोह दोप है। राग दोप ज्ञानगुण से जीता जाता है, द्वष दोप दर्शनगुण से जीता जाता है एव मोह दोप चारित्र गुण से जीता जाता है।