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________________ ४१ तप, स्वाध्याय एव ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग है। उससे क्लेश की अल्पता एव समाधि की प्राप्ति होती है । नवकार का प्रथम पद 'नमो अरिहताण' समाधि की भावना एव अविद्यादि क्लेशो का निवारण करता है । नमो पद से कर्मयोग की चिकित्सा रूप वाह्य प्राभ्यन्तर तप, अरिह पद द्वारा स्वाध्याय एव ताण पद द्वारा ईश्वरप्रणिधान-एकाग्रचित से परमात्म-स्मरण होता है। प्रथम पद के विधिपूर्वक जाप से श्रद्धा बढती हैं। वीर्य प्रज्ञा बडती है तथा अन्त मे कैवल्य की प्राप्ति होती है। अष्टांग-योग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एव समाधि ये योग के आठ अङ्ग कहे गए है। उस प्रत्येक अङ्ग की साधना विधियुक्त नवकार मन्त्र को गिनने वाले को सिद्ध होती है। नवकार मन्त्र को गिनने वाला अहिंसक बनता है, सत्यवादी होता है, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एव अपरिग्रह व्रत का भी आराधक होता है। नवकार मन्त्र के आराधक की बाह्यान्तर शौच एव सन्तोष तथा पूर्वकथनानुसार तप, स्वाध्याय एव ईश्वर-प्रणिधान रूप नियमो की साधना होती है । नवकार मन्त्र को गिननेवाला स्थिर एव सुखासन की तथा वाह्याभ्यन्तर प्राणायाम की साधना करने वाला भी होता है। नवकार का साधक इन्द्रियो का प्रत्याहार, मन की धारणा एव बुद्धि की एकाग्रतारूप ध्यान तथा अन्त करण की समाधि का,अनुभव करता है। नमो पद से नाद की, अरिहं पद से विन्दु की एव ताण पद से कला की साधना होती है । नवकार मन्त्र से नास्तिकता, निराशा एव निरुत्साहिता नष्ट होती है तथा नम्रता, निर्भयता एव निश्चिन्तता प्राप्त होती है । नवकार
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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