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________________ के अन्दर भी जब तक घाती कर्म का क्षय होता नहीं, तव तक उसकी जन्मावस्था, राज्यावस्था तथा चारित्र ग्रहण करने के बाद केवल ज्ञान न हो तब तक छद्मास्थावस्था की आराधना को धर्मकाय की अवस्था कहा गया है। उसके बाद घाती कर्म का क्षय, कैवल्य की प्राप्ति होने के पश्चात् धर्मतीर्थ की स्थापना तथा निरन्तर धर्मोपदेशादि के द्वारा परोपकार की प्रवृत्ति कर्मकाय अवस्था है। योगनिरोधरूप शैलेशीकरण को तत्त्वकाय अवस्था कहा गया है । इन तीनो अवस्थाम्रो का ध्यान तथा आराधना नवकार के प्रथम पद की आराधना से होता है । उसमे नमो पद धर्मकाय अवस्था का प्रतीक बनता है, अरिह पद कर्मकाय अवस्था का प्रतीक बनता है तथा ताण पद तत्त्वकाय अवस्था का प्रतीक बनता है। इस प्रकार प्रभु की पिंडस्थ, पदस्थ तथा रूपातीत अवस्थामो की आराधना का साधन नवकार के प्रथम पद द्वारा होने से प्रथम पद का जाप ध्यान तथा अर्थ-चिन्तन पुन पुन. करने योग्य है। अमृत अनुष्ठान प्रथम पद द्वारा परमात्मा की स्तुति, परमात्मा का स्मरण तथा परमात्मा का ध्यान सरलता से हो सकता है। नाम ग्रहण द्वारा स्तुति, अर्यभावना द्वारा स्मरण तथा एकाग्रचिन्तन द्वारा ध्यान सभव हो सकता है। श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा तथा अनुप्रक्षा द्वारा होती प्रभु की स्मृति तथा ध्यान क्रमश. वोधि, समाधि तया सिद्धि का कारण बनते है। 'नमो अरिहंताण' पद योग की इच्छा, योग की प्रवृत्ति, योग का स्थैर्य व योग की सिद्धि करवाता है, इतना ही नही पर प्रथ
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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