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________________ ७२ मंगल भावना J खामेमि सव्वजीवे, सव्वेजीवा खमन्तु मे । मित्ती मे सव्वभूएसु, 'वेरं मज्झ न केाई || २ || — जगत के सभी जीवो से में क्षमा मांगता हूं। उनसे मेरे अपराधो की क्षमा मागता हूँ । सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान करो - यह प्रार्थना करता हूँ, मेरा सभी जीवो के साथ मैत्रीभाव है, मेरा किसी के साथ वैर विरोध नही है । मा कार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत कोऽपि दुखितः । मुच्यतां जगदप्येषा, मतिर्मैत्री निगद्यते ||२|| कोई भी प्राणी पाप मत करो, कोई भी जीव दुखी नही हो, यह सारा जगत् कर्मवन्धन से मुक्त हो, ऐसी बुद्धि को मंत्रीभाव कहा जाता है | शिवमस्तु सर्वजगत. परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषा. प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोक ||३|| जगत् के सर्वजीवो का कल्याण हो, सभी प्रारणी परहित सम्पादन करने वाले हो, सभी के दोष नष्ट हो जाय तथा सर्वत्र समग्र लोक सुखी हो ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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